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________________ सम्यग्ज्ञान की परिभाषाएँ और विभ्रम (विपर्यय) रूप कुज्ञान से रहित जानना है, वह सम्यग्ज्ञान है। (द्रव्यसंग्रह, गाथा- ४२, पृष्ठ- २०६ ) २०. सत् और असत् पदार्थों में व्यवहार करनेवाला सम्यग्ज्ञान है। ( सिद्धि विनिश्चय १० /१९/६८४) २१. सात तत्त्व और नौ पदार्थों में निश्चयनय से अपना शुद्धात्मद्रव्य ही उपादेय है। इसके सिवाय शुद्ध या अशुद्ध परजीव, अजीव आदि सभी हेय हैं। इसप्रकार संक्षेप से हेय तथा उपादेय भेदों से व्यवहार ज्ञान दो प्रकार का है । ( द्रव्यसंग्रह, गाथा- ४२, पृष्ठ- २०६ ) २२. ज्ञान में अर्थ (विषय) प्रतिबोध के साथ-साथ यदि अपना स्वरूप भी प्रतिभासित हो और वह भी यथार्थ हो तो उसको सम्यग्ज्ञान कहना चाहिए। (तत्त्वार्थसार अधिकार - १, श्लोक - १८ ) २३. निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान ही निश्चयज्ञान है । 189 (द्रव्यंसग्रह, गाथा- ४२, पृष्ठ- २०६ ) २४. उस शुद्धात्मा को उपाधि रहित स्वसंवेदनरूप भेदज्ञान द्वारा मिथ्यारागादि परभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है। ( द्रव्यसंग्रह, गाथा - ८२, पृष्ठ- २४७ ) २५. उसी (अतीन्द्रिय) सुख को रागादि समस्त विभावों से स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है। (द्रव्यसंग्रह, गाथा - ४०, पृष्ठ- १८६ ) २६. एवंभूतनय की दृष्टि में ज्ञानक्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है; क्योंकि वह ज्ञानस्वभावी है । (राजवार्तिक अध्याय - १, सूत्र - १, पृष्ठ- ३ ) ज्ञान, जीव का एक विशेष गुण है, जो स्व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पाँच प्रकार का है - मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान ।
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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