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________________ 115 सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में अन्तर उत्तर- ऐसा अर्थ हम इष्ट नहीं कर सकते; क्योंकि इसमें अतिव्याप्ति दोष होगा। मिथ्यादृष्टि अभव्य के प्रशस्त देखना होने के कारण सम्यग्दर्शन हो जाने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। (श्लोकवार्तिक अध्याय-२, सूत्र-२,२,३,३) तथा यदि आपा पर का यथार्थ श्रद्धान नहीं है। अर जिनमत विषै कहै जे देव, गुरु, धर्म तिनि ही कू माने हैं, अन्य मत विर्षे कहे देवादि या तत्त्वादि तिनि को नहीं माने हैं तो ऐसे केवल व्यवहार सम्यक्त्व करि सम्यक्त्वी नाम पावें नहीं। (रहस्यपूर्ण चिट्ठी) सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में अन्तर २. प्रश्न - ज्ञान व दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति होने के कारण वे दोनों एक हैं? उत्तर - नहीं; क्योंकि, जिस प्रकार युगपत् होते हुए भी अग्नि का ताप व प्रकाश (अथवादीपक व उसका प्रकाश) अपने-अपने लक्षणों से भेद को प्राप्त हैं, उसीप्रकार युगपत् होते हुए भी ये दोनों अपने-अपने लक्षणों से भिन्न हैं। सम्यग्ज्ञान का लक्षण तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करना है और सम्यग्दर्शन का लक्षण उन पर श्रद्धान करना है। (पुरुषार्थसिन्धुपाय श्लोक-३२,३४) ३. प्रश्न - “तत्त्वार्थ का श्रद्धान करनेरूप सम्यग्दर्शन और पदार्थ का विचार करने स्वरूप सम्यग्ज्ञान है" इन दोनों में भेद नहीं जाना जाता, क्योंकि जो पदार्थ का निश्चय सम्यग्दर्शन में है, वहीं सम्यग्ज्ञान में है। इसलिए इन दोनों में क्या भेद है? । उत्तर- पदार्थ के ग्रहण करने में जाननेरूप जो क्षयोपशम विशेष है, वह 'ज्ञान' कहलाता है। (द्रव्यसंग्रा , गावा-४, पृष्ठ-२१८)
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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