________________
166
मोक्षमार्ग की पूर्णता : सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शन तो निर्विकल्प होने के कारण अन्तर में अभिप्राय या लब्धरूप अवस्थित मात्र रहा करता है। मोक्षमार्ग में इसका सर्वोच्च स्थान है; क्योंकि इसके बिना का आगम-ज्ञान, चारित्र, व्रत, तप
आदि सब वृथा है। - सम्यग्दर्शन के लक्षणों में भी स्वात्म संवेदन सर्वप्रधान है, क्योंकि
बिना इसके तत्त्वों की श्रद्धा आदि अकिंचित्कर है। यह सम्यग्दर्शन स्वतः या किसी के उपदेश से या जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन आदि के निमित्त से काल पाकर भव्य जीवों को उत्पन्न होता है। इसको प्राप्त करने की योग्यता केवल संज्ञी पर्याप्त जीवों में चारों ही गतियों में होती है। अनादि मिथ्यादृष्टि को सर्वप्रथम प्रथमोशम सम्यक्त्व होता है। वहाँ से नियम से गिरकर वह पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। पीछे कदाचित् वेदक-सम्यक्त्व को और तत्पूर्वक यथायोग्य गुणस्थानों में द्वितीयोपशम व क्षायिक हो जाता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन अत्यन्त अचल व अप्रतिप्राती है, तथा केवली के पादमूल में मनुष्यों को ही होना प्रारम्भ होता है। पीछे यदि मरण हो जाये तो चारों गतियों में पूर्ण होता है।
( जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग-४, पृष्ठ-३४५) मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन ही प्रधान है १. बहुत कहने से क्या, जो प्रधान पुरुष अतीतकाल में सिद्ध हुए हैं या आगे सिद्ध होंगे, वह सब सम्यक्त्व का माहात्म्य जानो।
. (मोक्षपाहुइ, गाथा-८८) २. दर्शन शुद्ध ही वास्तव में शुद्ध है, क्योंकि दर्शनशुद्ध ही निर्वाण
को प्राप्त करते हैं। दर्शन विहीन पुरुष इष्ट लाभ अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं करते।
(मोक्षपाहुड़, गाथा-३९)