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श्रीकानजी स्वामी के उद्गार
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जिसप्रकार सूत्र शास्त्र ज्ञान नहीं है, बाहर की चीज है - उपाधि है; उसीप्रकार उस श्रुत के लक्ष्य से होनेवाला ज्ञान भी बाहर की चीज हैउपाधि है।
अहाहा! कैसी अनोखी है, वीतराग की शैली? परलक्षी ज्ञान को भी श्रुत के समान उपाधि कहा है। स्वज्ञानरूप ज्ञप्तिक्रिया से आत्मा जानने में आता है, परन्तु भगवान की वाणी से आत्मा जानने में नहीं आता।
(आत्मधर्म : जुलाई १९८०, पृष्ठ-२४) १२. प्रश्न - ग्यारह अंग और नव पूर्व का ज्ञानी पंच महाव्रत का पालन करे, तथापि आत्मज्ञान करने में अब उसे और क्या शेष रह गया है?
उत्तर – ग्यारह अंग का ज्ञान तथा पंच महाव्रत का पालन करने पर भी उसे भगवान आत्मा का अखण्डज्ञान करना शेष रह गया है।
ग्यारह अंग का खण्ड-खण्ड इन्द्रियज्ञान किया था, वह खण्डखण्ड ज्ञान परवश होने से दुःख का कारण था।
अखण्ड आत्मा का ज्ञान किये बिना वह ग्यारह अंग का ज्ञान नाश को प्राप्त होने पर कालक्रम से वह जीव निगोद में भी चला जाता है।
अखण्ड आत्मा का ज्ञान करना ही मूलवस्तु है। इसके बिना भवभ्रमण का अन्त नहीं।
(आत्मधर्म : जून १९८०, पृष्ठ-२६) १३. प्रश्न-आचार्यदेव ने केवलज्ञान और श्रुतज्ञान में किस अपेक्षा से समानता कही है ?
उत्तर - जैसे भगवान केवली केवलज्ञान से आत्मा का अनुभव करने से केवली हैं, वैसे ही हम भी श्रुतज्ञान से केवल शुद्ध-आत्मा का अनुभव करने से श्रुतकेवली हैं- ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। अत: