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________________ 139 श्रीकानजी स्वामी के उद्गार दृष्टि जोड़ी है अर्थात् सुनते और बाँचते हुए भी स्वरूप में एकाग्रता की वृद्धि होगी। (आत्मधर्म : अगस्त १९७८, पृष्ठ-२५) ६. प्रश्न - एक स्थान पर तो ऐसा कहा कि आत्मा के लक्ष्य से आगम का अभ्यास करो इससे तुम्हारा कल्याण होगा, और दूसरे स्थान पर ऐसा कहा कि शास्त्र की ओर होनेवाले राग को भी छोड़ दो। ऐसा क्यों? उत्तर - पर की तरफ का लक्ष्य बन्ध का कारण होने से शास्त्र की तरफ का राग भी छुड़ाया है और जहाँ आगम का अभ्यास करने के लिये कहा, वहाँ उस आगमाभ्यास में आत्मा का लक्ष्य है, इसलिये व्यवहार से उस आगमाभ्यास को कल्याण का कारण कहा है। ' (आत्मधर्म : मार्च १९७७, पृष्ठ-२६) ७. प्रश्न - शास्त्र द्वारा मन से आत्मा जाना हो, उसमें आत्मज्ञान हुआ कि नहीं? उत्तर - यह तो शब्दज्ञान हुआ, आत्मा जानने में नहीं आया; आत्मा तो आत्मा से जाना जाता है। शुद्ध उपादान से हुए ज्ञान में साथ में आनन्द आता है; किन्तु अशुद्ध उपादान से हुए ज्ञान में साथ में आनन्द नहीं आता और आनन्द आए बिना आत्मा वास्तव में जानने में नहीं आता। (आत्मधर्म : जून १९७८, पृष्ठ-२४) ८. प्रश्न - शास्त्र द्वारा आत्मा को जाना और बाद में परिणाम आत्मा में मग्न हुए - इन दोनों में आत्मा के जानने में क्या अन्तर है? उत्तर - अनन्त गुना अन्तर है। शास्त्र से जानपना किया, यह तो साधारण धारणारूप जानपना है और आत्मा में मग्न होकर अनुभव में आत्मा को प्रत्यक्ष वेदन से जानता है। अतः इन दोनों में भारी अन्तर है। (आत्मधर्म : सितम्बर १९७७, पृष्ठ-२७)
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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