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श्रीकानजी स्वामी के उद्गार .. रागमिश्रित विचार छूटकर ज्ञान, ज्ञान में ही एकाग्र हुआ - उसी का नाम आत्मख्याति है। उस आत्मख्याति को ही सम्यग्दर्शन कहा।
यद्यपि आत्मख्याति स्वयं तो ज्ञान की पर्याय है, किन्तु उसके साथ सम्यग्दर्शन अविनाभावी होता है; इसलिए उस आत्मख्याति को ही सम्यग्दर्शन कह दिया है। (आत्मधर्म : जून १९८३, पृष्ठ-२७)
५६. प्रश्न-जब स्वाश्रय करे, तब सम्यग्दर्शन प्रगट होता है अथवा जब सम्यग्दर्शन हो, तब स्वाश्रय होता है?
उत्तर - जिस पर्याय ने स्वाश्रय किया, वह स्वयं ही सम्यग्दर्शन है; अत: उसमें पहले-पीछे का भेद नहीं है। जो पर्याय स्वाश्रय में ढली वही सम्यग्दर्शन है। स्वाश्रितपर्याय और सम्यग्दर्शन भिन्न-भिन्न नहीं हैं। त्रिकाली स्वभावाश्रित ही मोक्षमार्ग है।
(वीतराग-विज्ञान : फरवरी १९८४, पृष्ठ-२४) ५७. प्रश्न - आपश्री के द्वारा बताया गया आत्मा का माहात्म्य आने पर भी कार्य क्यों नहीं होता है?
उत्तर - अन्दर जो अपूर्व माहात्म्य आना चाहिये, वह नहीं आता। एकदम उल्लसित होकर अन्दर से जो महिमा आनी चाहिये वह नहीं आती। भले धारणा में माहात्म्य आता हो।
. (आत्मधर्म : अगस्त १९७६, पृष्ठ-२२) ५८. प्रश्न- वास्तविक माहात्म्य लाने के लिये क्या करना चाहिये?
उत्तर - एक आत्मा की ही यथार्थ में अन्दर से रुचि जगे और भव के भावों की थकान लगे तो आत्मा का अन्दर से माहात्म्य आये बिना रहता ही नहीं।
वास्तव में जिसे आत्मा चाहिए ही, उसको आत्मा मिलता ही है। श्रीमद् ने भी कहा है - छूटने का इच्छुक बँधता नहीं है।
(आत्मधर्म : अगस्त १९७६, पृष्ठ-२१) ५९. प्रश्न - उपयोग में उपयोग है - इसका क्या मतलब ?