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श्रीकानजी स्वामी के उद्गार
उत्तर - हाँ, सम्यक्त्व छूट जाने के बाद थोड़े समय तक ख्याल में रहता है, किन्तु लम्बे समय के पश्चात् भूल जाता है।
( आत्मधर्म : जुलाई १९८१, पृष्ठ- २१ ) ४७. प्रश्न - दर्शनपाहुड की गाथा २१ में कहा है कि हे जीव ! तू सम्यग्दर्शन को अन्तरंगभाव से ग्रहण कर । यहाँ बताये हुये अन्तरंगभाव का तथा बहिरंगभाव का भी अर्थ स्पष्ट कीजिये?
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उत्तर अन्तरस्वभाव के आश्रय से परिणति प्रकट करना, वह अन्तरंगभाव है; ऐसी परिणति अंशरूप में प्रकट करना सम्यग्दर्शन है। इसके विपरीत नव तत्त्व की श्रद्धा आदि राग भाव अन्तरंगभाव नहीं हैं, तो बहिरंगभाव हैं।
बाह्यलक्ष से जो भी भाव हों, वे सब बहिरंग भाव हैं। पुण्य-पाप के परिणाम चैतन्य अंग नहीं हैं, किन्तु कार्मण अंग हैं। व्यवहार सम्यग्दर्शन भी कार्माण अंग है। चैतन्य को चूककर कर्म के संबंध से जो भी भाव उत्पन्न हों, वे सब बहिरंगभाव हैं, अन्तरंगभाव नहीं। उनसे सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति भी नहीं होती।
जड़ की क्रियाओं और बाह्यभावों में एकत्वबुद्धि छोड़कर अर्थात् परभावों में आत्मबुद्धि छोड़कर अकेले आत्मस्वभाव का आश्रय करना अन्तरंगभाव है; उसी से आत्मकल्याण होता है।
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(आत्मधर्म : अप्रेल १९८२, पृष्ठ- २५ ) ४८. प्रश्न – जिससमय जीव हेय उपादेय को यथार्थ समझे, उसी समय हेय को छोड़कर उपादेय को ग्रहण करे अर्थात् सच्ची श्रद्धा के साथ ही साथ पूर्ण चारित्र भी होना चाहिये; परन्तु ऐसा होता तो है नहीं; इसलिये हम तो ऐसा मानते हैं कि जब यह जीव रागादि को त्यागकर चारित्र अंगीकार करे, तभी उसे सच्ची श्रद्धा होती है। ऐसा मानने में क्या दोष है ?
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