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________________ श्रीकानजी स्वामी के उद्गार 125 मूल बात यह है कि अन्दर में जो आश्चर्यकारी आत्मवस्तु है, उसकी अन्दर से महिमा नहीं आती। द्रव्यलिंगी साधु हुआ, लेकिन अन्दर से महिमा नहीं आती। पर्याय के पीछे समूचा ध्रुव, महाप्रभू विद्यमान है -इसकी महिमा, आश्चर्य भासित हो तो कार्य होता ही है। ___ आत्मा अनन्त-अनन्त आनंद का धाम है, इसको विश्वास में लाना चाहिए। अन्दर में जब आत्मा की प्रभुता का विश्वास आये, तब कार्य होता ही है। जिसने जीवन ज्योति ऐसे चैतन्य का अनादर करके राग को अपना माना है; राग मैं हूँ - ऐसा माना है; उसने अपनी आत्मा का घात किया है। जिससे लाभ मानता है, उसको स्वयं का माने बगैर उससे लाभ माना नहीं जा सकता। इसलिए राग से लाभ माननेवाला स्वयं का ही घात करनेवाला होने से दुरात्मा है, आत्मा का अनादर करनेवाला है, अविवेकी मिथ्यादृष्टि है। (आत्मधर्म : सितम्बर १९७६, पृष्ठ-२१) ३६. प्रश्न - इस पर से ऐसा होता है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का पात्र कौन है? उत्तर – यह पात्र ही है, लेकिन पात्र नहीं है - ऐसा मान लेता है। यही शल्य बाधक होती है। (आत्मधर्म : जुलाई १९७६, पृष्ठ-२१) ३७. प्रश्न - क्या सविकल्प द्वारा निर्विकल्प नहीं होता है ? उत्तर - सविकल्प द्वारा निर्विकल्प नहीं होता, किन्तु कहा अवश्य जाता है; क्योंकि विकल्प को छोड़कर निर्विकल्प में जाता है, यह बताने के लिये सविकल्प द्वारा हुआ - ऐसा कहा जाता है। ___रहस्यपूर्ण चिट्ठी में आता है कि 'रोमांच होता है' अर्थात् वीर्य अन्दर जाने के लिये उल्लसित होता है - ऐसा बताना है। (आत्मधर्म : सितम्बर १९७६, पृष्ठ-२४)
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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