SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 122 मोक्षमार्ग की पूर्णता : सम्यग्दर्शन है। भाई ! अन्तर का रहस्य कच्चे पारे की तरह बहुत गम्भीर है, पचा सके तो मोक्ष होता है। (आत्मधर्म : जनवरी १९७८, पृष्ठ-२५) २७. प्रश्न - "पूर्णता के लक्ष्य से प्रारम्भ सो प्रारम्भ" - ऐसा श्रीमद् राजचन्द्रजी ने कहा है। वहाँ पूर्णता के लक्ष्य से प्रारम्भ में त्रिकाली द्रव्य को लेना अथवा केवलज्ञान पर्याय को लेना? कृपया स्पष्टीकरण कीजिये? . . . उत्तर- यहाँ पूर्णता के लक्ष्य में साध्यरूप केवलज्ञान पर्याय लेना। त्रिकाली द्रव्य तो ध्येयरूप है। केवलज्ञान उपेय है और साधकभाव उपाय है। उपाय का साध्य उपेय केवलज्ञान है। - (आत्मधर्म : मई १९८०, पृष्ठ-२५) २८. प्रश्न - जिनवरकथित व्यवहार चारित्र का सावधानीपूर्वक पालन सम्यग्दर्शन होने का कारण होता है या नहीं ? २९. उत्तर -रंचमात्र भी कारण नहीं होता। सम्यग्दर्शन होने का कारण तो अपना त्रिकाली आत्मा ही है। जिनेन्द्रकथित व्यवहारचारित्र को सावधानीपूर्वक और परिपूर्ण पालें, तथापि उससे सम्यग्दर्शन नहीं होता। (आत्मधर्म : अक्टूबर १९७७, पृष्ठ-२४) __३०. प्रश्न - दोनों अपेक्षाओं का प्रमाणज्ञान करें, फिर पर्यायदृष्टि गौण करें, निश्चयदृष्टि मुख्य करें - इतनी मेहनत करने के बदले आत्मा चैतन्य है'- मात्र इतना ही अनुभव में आए तो इतनी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है या नहीं ? . उत्तर - नहीं; नास्तिकमत के सिवाय सभी मतवाले आत्मा को चैतन्यमात्र मानते हैं। यदि इतनी ही श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा जाय तो सभी के सम्यक्त्व सिद्ध हो जायेगा। सर्वज्ञ वीतराग ने आत्मा का जैसा स्वतन्त्र और पूर्ण स्वरूप कहा है - वैसा सत्समागम से जानकर, स्वभाव से निर्णय करके उसका ही श्रद्धान करने से निश्चय सम्यक्त्व होता है।
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy