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________________ सम्यक्चारित्र की पूर्णता अर्थ - जबतक ज्ञान की कर्मविरति भलीभाँति परिपूर्णता को प्राप्त नहीं हो, तबतक कर्म और ज्ञान का एकत्रितपना शास्त्र में कहा है; उसके एकत्रित रहने में कोई भी क्षति या विरोध नहीं है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि आत्मा में अवशपने जो कर्म प्रगट होता है, वह तो बन्ध का कारण है और जो एक परम ज्ञान है, वह मोक्ष का कारण है - जो कि स्वतः विमुक्त है अर्थात् तीनों काल परद्रव्य-भावों से भिन्न है। . भावार्थ - जबतक यथाख्यात चारित्र (प्रगट) नहीं होता तबतक सम्यग्दृष्टि की दो धाराएँ रहती हैं - शुभाशुभ कर्मधारा और ज्ञानधारा। उन दोनों के एक साथ रहने में कोई विरोध भी नहीं है। (जैसे मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान के परस्पर विरोध है, वैसे कर्मसामान्य और ज्ञान के विरोध नहीं है। ऐसी स्थिति में कर्म अपना कार्य करता है और ज्ञान अपना कार्य करता है। जितने अंश में शुभाशुभ कर्मधारा है, उतने अंश में कर्मबन्ध होता है और जितने अंश में ज्ञानधारा है, उतने अंश में कर्म का नाश होता जाता है। विषय-कषाय के विकल्प, व्रत-नियम के विकल्प अथवा शुद्ध-स्वरूप का विचार तक भी कर्मबन्ध का कारण है, शुद्ध परिणतिरूप (शुद्धोपयोग) ज्ञानधारा ही मोक्ष का कारण है।" . इस विषय पर आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी का विशेष विवेचन पढ़ना चाहिए, जो प्रवचन रत्नाकर में छप चुका है। कलशामृत भाग-४ गुजराती भाषा में भी इस ११० कलश पर अधिक विस्तारपूर्वक खुलासा आया है। पण्डित दीपचन्दजी कृत अनुभव प्रकाश ग्रंथ में मिश्रधर्म अधिकार है, उस पर भी श्री स्वामीजी के हिन्दी भाषा में प्रवचन उपलब्ध हैं। जिज्ञासु इन सबका अध्ययन अवश्य करें। १. ज्ञानधारा-कर्मधारा नामक एक किताब जो टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई है।
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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