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भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग
हैं। इसप्रकार आत्मा में इनका अभाव मानना ही इस प्रणाली मूल आधार है; लेकिन सद्भूतनय के विषयों में आधार परिवर्तित हो जाता है।
सद्भूतनय के विषयों का तो आत्मा में सद्भाव वर्तता है। जब तक आत्मा पूर्णदशा प्राप्त नहीं कर ले तब तक उनका आत्मा में सद्भाव मानते हुए उनसे भेदज्ञान मूल आधार होता है। आत्मा एवं सद्भूतनय के विषय के द्रव्य-क्षेत्र-काल तीनों तो एक ही होते हैं, लेकिन भाव भिन्नता होती है। अत: पर्याय में इनका अस्तित्व मानते हुए भी है, उनमें परत्व बुद्धि उत्पन्न कर आकर्षण का अभावकर ज्ञायक में अपनत्व का आकर्षण उत्पन्न करने का उद्देश्य इस पद्धति का होता है। इस प्रणाली में निजत्व स्थापन करने का विषय तो शुद्ध निश्चय नय का विषय होता है और जिनसे अपनत्व तोड़ना है वे सद्भूत नय के विषय आदि समस्त विश्व होता है।
तात्पर्य यह है कि असद्भूत नय के विषयों का आत्मा में नास्तित्व मानकर, उनका उनमें ही अस्तित्व स्वीकार कर, उनके परिणमनों का कर्ता उनको ही मानकर, उनके प्रति अपनत्व का आकर्षण तोड़, निर्भार होकर अपनी आत्मा में अपनत्व का आकर्षण उत्पन्न किया जाता है। तत्पश्चात् शुद्धनय के विषयभूत ध्रुव-ज्ञायक में अपनत्व एवं सद्भूतनय के विषयों में परत्व पूर्वक आकर्षण तोड़कर, मात्र ज्ञायक में आकर्षण के लिये भेदज्ञान की पद्धति अपनाई जाती है। इस पद्धति में, अनन्तगुणों एवं सभी पर्यायों का आत्मद्रव्य में अस्तित्व मानते हुए भी, ज्ञायक में उनका भेदरूप अस्तित्व नहीं होने से उनके प्रति अपनत्व आदि सभी प्रकार के आकर्षण तोड़ने के लिये भेदज्ञान होता है।
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