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________________ भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग इसकी सफलता और विकार का अभाव करने के लिये स्वाभाविक पर्याय और विकारी पर्याय से भेदज्ञान किया जाता है। जैसे क्रोधादि पर्यायें तो चारित्र गुण की विकृत पर्यायें है। आत्मा में जब उनका उत्पाद हुआ, उसी समय ज्ञान पर्याय में विकार का ज्ञान हुआ । निष्कर्ष यह है कि क्रोध और ज्ञान दोनों पर्यायों का उत्पाद साथ होता है, सभी गुणों का भी उत्पादन साथ ही होता है; क्योंकि द्रव्य अभेद है, ज्ञान और क्रोध की पर्यायों में, ज्ञान तो कभी विकृत होता नहीं तथा उसका तादात्म्य ज्ञायक के साथ है। ज्ञान पर्याय तो स्वाभाविक परिणमन है, लेकिन उसी समय चारित्र पर्याय विकृत उत्पन्न हुई है; दोनों का उत्पाद एक साथ होता है । ऐसी स्थिति में ज्ञानी तो भेदज्ञानज्योति द्वारा ज्ञान क्रिया का करने वाला अपने को मानते हुए, क्रोधादि को ज्ञान का ज्ञेय मानकर, उसमें परत्व बुद्धिपूर्वक, ज्ञायक में अपनत्व दृढ़ करता रहता है। इसके विपरीत अज्ञानी को भेदज्ञान का उदय नहीं होने से और पर में अपनत्व होने से क्रोध रूप अपने को मानता हुआ, विकार का कर्ता बना रहता है। २८ इस प्रकार भावकर्म से भेदज्ञान करके ज्ञायक ध्रुव में अपनत्व कर, भावकर्म में परत्व मानकर परिणति को ज्ञायक में आकर्षित किया जाता है । तात्पर्य यह है कि असद्भूत नय के विषयों का तो अपने में नास्तित्व मानते हुए अपनेपन की मान्यता छोड़ने की मुख्यता होती है और सद्भूतनय के विषयों का अपने में अस्तित्व स्वीकारते हुए भी, ज्ञायक में उनका नास्तित्व होने से, अपने ज्ञायक के साथ अपनत्व करने की मुख्यता होती है। दोनों की भेदज्ञान प्रणाली में यह अन्तर है।
SR No.007121
Book TitleBhedvigyan Ka Yatharth Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages30
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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