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________________ भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग को समझकर, उसमें एकत्व अर्थात् अपनापन करने की तीव्रतम रुचि-महिमा उत्पन्न होनी चाहिए और अपना स्वरूप सिद्ध भगवान् के समान मानकर, स्वसन्मुखता पूर्वक अपने को जानने के स्वरूप वाला ज्ञायक मानकर, निर्णय कर श्रद्धा करना चाहिये। फलस्वरूप ज्ञेयों के परिणमन, उनकी योग्यतानुसार क्रमबद्ध हो रहे हैं ऐसी निरपेक्ष वृत्ति उत्पन्न हो जावेगी और उनके जानने के प्रति भी उत्साह नहीं रहेगा अर्थात् पर का आकर्षण ही टूट जावेगा। और ज्ञायक-ध्रुव वही आकर्षण का केन्द्र बन जायेगा। निष्कर्ष यह है कि उत्कृष्ट महिमा लाकर, अपने ज्ञायक में अतीव आकर्षण उत्पन्न होना चाहिये। तात्पर्य यह है कि विपरीत मान्यता का अभाव कर सत्यार्थ मान्यता उत्पन्न करने का, उपर्युक्त प्रकार का उपाय अपनाकर, अनादि से चली आ रही श्रृंखला को तोड़ देना चाहिये। यही है भेदज्ञान के यथार्थ प्रयोग का फल और यही है अनादिकालीन संसार परिभ्रमण के नाश करने का उपाय । आत्मा में विकार की उत्पत्ति का इतिहास भी यही है एवं उसका नाशकर, सर्वज्ञ, वीतराग बनने का प्राथमिक उपाय भी यही है। सद्भूत-असद्भूत के विषयों से भेदज्ञान में अन्तर असद्भूत नयों के विषयों का तो आत्मा में त्रिकाल अभाव वर्तता है, उनके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सभी का आत्मा में अत्यन्ताभाव है; इसप्रकार वे तो आत्मा में हैं ही नहीं - ऐसा मानकर, उनसे अपनेपन का नाता तोड़कर आत्मा में अपनत्व करना चाहिये। इस पद्धति में जिसमें अपनापन किया, वह आत्मा भी प्रमाणरूप द्रव्य रहता है और जिनसे अपनत्व तोड़ा वे परद्रव्य होते
SR No.007121
Book TitleBhedvigyan Ka Yatharth Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages30
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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