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________________ भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग प्रकार की परिणति वर्तना ही वास्तविक मार्ग है और यही सविकल्पता द्वारा निर्विकल्प आत्मानुभूति प्रगट करने वाला भेदज्ञान है। विकारी आत्मा को ज्ञायक कैसे मानें ? १७ प्रश्न – पाँचों अचेतन द्रव्यों की पर्यायें तो उनके ध्रुव के - समान, परिणमती हैं; लेकिन हमारी पर्याय तो विकारी है। ऐसी दशा में आत्मा को निर्विकारी - ज्ञाता मात्र कैसे मान लिया जावे ? उत्तर - उपर्युक्त समस्या जटिल दिखते हुए भी, वास्तव जटिल नहीं है, दृष्टि की विपरीतता ने उसे जटिल बना लिया है । वास्तव में आत्मवस्तु (प्रमाणरूपवस्तु) तो वही है जो सिद्ध भगवान् की है, उनकी पर्याय भी ध्रुव जैसी ही वर्त रही है। आत्मा का स्वभाव भी वही है । यह नियम आत्मार्थी के ज्ञान - श्रद्धान में निःशंक रूप से स्वीकार होना चाहिये। ऐसा विश्वास होने पर ही, वास्तविकता खोजने के लिये उसकी दृष्टि सम्यक् प्रकार से कार्य करेगी। लेकिन बहुभाग आत्मार्थी, इससे विपरीत विकारी पर्याय को मुख्य कर आत्मा को विकारी मानते हुए, ज्ञायक को खोजने की चेष्टा करते हैं; यह दृष्टि विपरीत है । उपर्युक्त प्रकार की आत्मवस्तु के दो रूप हैं; उसका त्रिकाली स्वरूप तो, त्रिकाल - अपरिवर्तित नित्य एवं ध्रुव बना रहता है; ज्ञायक एवं दृष्टि का विषय भी उसी को कहते हैं । मेरा त्रिकाली स्वरूप भी वही है । ध्रुव तो ध्रुव ही रहता है, प्रत्येक समय के परिणमन में वह तो अपरिवर्तित बना रहता है । उसको अपना स्वरूप मानकर ऊर्ध्व रखते हुए, पर्याय के विकार एवं उसके कारणों की खोज करना, वह सत्यार्थ दृष्टि है । इसके विपरीत, रूप बदलती हुई अनित्य स्वभावी पर्याय को, अपना स्वरूप मानकर, ज्ञायक की खोज करना, असत्यार्थ अर्थात् मिथ्या दृष्टि है । क्योंकि -
SR No.007121
Book TitleBhedvigyan Ka Yatharth Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages30
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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