________________
भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग अनुसार) ऐसी स्थिति में उनको जानने - नहीं जानने से, उनके परिणमन में कोई अन्तर नहीं पड़ता। अत: उनको जानने की आकांक्षा भी निरर्थक है।
आत्मा की स्वयं की पर्याय भी ज्ञान के लिये तो ज्ञेय ही है। पर्याय के परिणमन कैसे भी हों, ज्ञान तो उनको भी निरपेक्षतया जानता रहता है, उसकी विकृति तो ज्ञान में आती नहीं, अपनी योग्यतानुसार, ज्ञान पर्याय ही उनके आकार परिणमती हुई उत्पन्न होती है। आत्मा उसको निरपेक्षता पूर्वक जानता है। विकारी तो श्रद्धा एवं चारित्र गुण की पर्यायें हैं; ज्ञान के लिये तो वे भी परज्ञेय हैं। अतः ज्ञान न तो उनका कर्ता है और न भोक्ता है, मात्र ज्ञायक है। यह कथन श्रद्धा अपेक्षा है। चारित्र अपेक्षा तो तीन कषायों के सद्भावात्मक विकार ज्ञानी को भी होता है, अत: ज्ञानी उसका कर्ता-भोक्ता भी है। सम्यग्ज्ञान सब को यथावत् जानता है। फलत: अभाव करने का पुरुषार्थ भी ज्ञानी को निरंतर वर्तता रहता है; वह पुरुषार्थ भी आत्मा का आत्मा में ही होता है। ज्ञायक में अपनत्व के बल से, परिणति को पर्याय की ओर से व्यावृत्त करके, स्व में एकाग्र करते ही पर्याय की विकृति का अभाव हो जाता है। अत: स्वच्छन्दता का अवकाश ही नहीं रहता।
तात्पर्य यह है कि आत्मा तो ज्ञेयों के आकार परिणत, स्वयं की ज्ञानपर्याय को जानता है; इसलिये उसको परमुखापेक्षी होने का अवकाश ही नहीं रहता। फलत: अतीन्द्रियता प्राप्त करने की पात्रता प्रगटकर लेता है। इस प्रकार की अतपरिणति वर्तने पर, ज्ञेयमात्र सहज ही उपेक्षित अर्थात् गौण रह जाते हैं; करने नहीं पड़ते। ज्ञानी होने पर तो सहजरूप से ऐसी अतपरिणति वर्तने लगती है, प्रयास नहीं करना पड़ता। लेकिन उपर्युक्त प्रकार के अभ्यास द्वारा श्रद्धा के बल से उक्त आत्मार्थी को तो परिणति प्रगट करनी पड़ती है। इस