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भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग में आत्मा तो वही है और वही पूर्ण दशा होने पर अनन्तकाल रहता है; मेरा भी आत्मद्रव्य वैसा ही है। उस आत्मद्रव्य के ही उपर्युक्त प्रकार से संसार अवस्था में असमानरूप के दो पक्ष हो जाते हैं। एक तो ध्रुव पक्ष और दूसरा विकारी पर्यायपक्ष।
ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है। वह स्व-पर का ज्ञायक होने के साथ-साथ, सदैव शुद्ध रहता हुआ परिणमता है। उसका परिणमन विकारी नहीं होता (जानने में हीनाधिकता होना, विकार नहीं है।)। स्वयं की योग्यता से निरपेक्षता पूर्वक स्व को स्व के रूप में एवं पर को पर के रूप में जानता रहे, ऐसा ज्ञान का स्वभाव है। ऐसे स्वभाव के प्रगटता की पूर्णता, वह सर्वज्ञता है एवं घालमेल के बिना प्रगटता की अपूर्णता, वह साधक दशा है। जानने का कार्य तो स्वक्षेत्र में रहकर होता है, स्व की ज्ञान पर्याय ही, स्व एवं पर ज्ञेयों के आकार रूप परिणमती हुई, उत्पाद करती है, आत्मा उसको ही जानता है; प्रत्येक आत्मा को स्व-पर का जानना इसी प्रकार होता है। पर के सन्मुख होकर, अथवा उनके समीप जाकर, परज्ञेयों को नहीं जानता, अपने ज्ञेयाकार ज्ञान को ही जानता है। इस प्रकार आत्मा स्वक्षेत्र में रहते हुए, स्व एवं पर को, स्वमुखापेक्षी रहते हुए ही जानने के स्वभाव वाला है। वास्तव में परज्ञेयों के जानने के लिए आत्मा को इन्द्रियादि की पराधीनता भी नहीं है। पर में करने-धरने का तो, प्रश्न ही नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि आत्मा तो द्रव्यपर्याय सभी अपेक्षा ज्ञायक-अकर्ता है।
उपर्युक्त स्थिति का, ज्ञेयों की ओर से भी विचार किया जावे तो सभी ज्ञेय, उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वभावी, स्वतंत्र सत्ताधारक पदार्थ हैं। वे स्वतंत्रतापूर्वक अपने-अपने उत्पाद-व्यय अर्थात् पर्यायों को कर रहे हैं। उनके कार्य (उत्पाद-व्यय) में किसी का हस्तक्षेप न तो है और न हो ही सकता है। (समयसार गाथा ३ की टीका के