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भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग आत्मार्थी ही भेदज्ञान पूर्वक सफलता प्राप्त करने का पात्र होता है। सभी प्रकार के भेदज्ञान के पुरुषार्थ में, उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ रुचि की उग्रता एवं परिणति की शुद्धता का पृष्टबल मुख्य रहता है; इसके द्वारा स्व की ओर का आकर्षण उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है एवं पर की ओर का आकर्षण घटता जाता है। इस प्रकार की अतस्थिति ही, आत्मानुभव की सफलता का मूल आधार है।
उपर्युक्त प्रक्रिया में व्युत्पन्न आत्मार्थी, जब निर्णीत मार्ग के प्रयोग करने का (स्वानुभूति का) पुरुषार्थ करता है तो, सहज रूप से उसका ज्ञान अन्तर्लक्ष्यी अर्थात् स्वमुखापेक्षी होने की ओर अग्रसर होता है। यह पुरुषार्थ प्रायोग्यलब्धि का है। इस प्रक्रिया में, ज्ञायक ध्रुवतत्त्व ऐसे स्व में अपनेपन की श्रद्धा सहित उत्तरोत्तर स्व की ओर का आकर्षण बढ़ता जाता है, तथा नोकर्म-द्रव्यकर्म-भावकर्म आदि ज्ञेयमात्र जो भी हैं, वे सब परज्ञेय के रूप में रह जाते हैं। उनके प्रति परपने की श्रद्धा हो जाने से, सहजरूप से आकर्षण घटता जाता है एवं मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबंधी के अनुभाग सहज रूप से क्षीणता को प्राप्त होते जाते है; फलत: ज्ञान का परमुखापेक्षीपना भी ढीला होता हुआ, स्वमुखापेक्षीपने की ओर उत्तरोत्तर अग्रसर होता जाता है। इस प्रक्रिया में, रुचि की उग्रता का बढ़ते रहना एवं ज्ञेयमात्र की ओर से परिणति का सिमटते हुए आत्मा में एकत्व करने की ओर बढ़ते जाना, ऐसी अतपरिणति का होना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य है। ऐसी स्थिति होने पर ही आत्मानुभव प्राप्त करने में सफलता होती है।
ऐसे आत्मार्थी की श्रद्धा ऐसी हो जाती है कि आत्मा तो वास्तव में वही है, जो अंतिमदशा में रहे। तात्पर्य यह है कि जो सिद्ध भगवान का प्रमाणरूप द्रव्य है, (उनके द्रव्य और पर्याय एक जैसे हैं) वास्तव