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भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग
वास्तव में उपर्युक्त ७ विशेषताओं वाला आत्मा ही शुद्ध प्रमाण ज्ञान का विषय आत्मद्रव्य है और वही सिद्ध भगवान् का आत्मा है। ऐसे आत्मा के संसार अवस्था में २ रूप हो जाते हैं; एक तो त्रिकाली रूप, वह तो त्रिकाल रहने से ध्रुव है और वही सिद्ध भगवान् के आत्मा का रूप है और वही मेरी श्रद्धा का श्रद्धेय है; उसी की स्थापना मैंने की है, उसका आश्रय करने (अपना स्वरूप मानने) से ज्ञान अन्तर्लक्ष्यी होकर कार्यरत हो जाता है।
एक समय मात्र की मर्यादा वाला अनित्य स्वभावी पर्याय दूसरा रूप है। इसका तो जीवन काल ही मात्र एक समय का है, इसको अपना मानने (पर्यायं रूप ही अपना अस्तित्व मानने) से तो मुझे प्रति समय के जीवन-मरण का दुःख भोगना पड़ेगा। अत: मैं पर्याय रूप नहीं हूँ। सहज ही ऐसा निर्णय आता है। ऐसी श्रद्धा होने से पर्यायों के प्रति, आकर्षण घट जाता है; फलत: ज्ञान में पर्यायें गौण रहकर अकेला ध्रुव विषय रह जाने से, उपयोग निर्विकल्प होने की पात्रता उत्पन्न कर लेता है। यह ही अज्ञानी को ज्ञानी बनाने वाला दूसरे प्रकार का भेदज्ञान है।
संक्षेप में, सार यह है कि भेदज्ञान की प्रक्रिया में क्रमशः बढ़ती हुई रुचि की उग्रता के पृष्टबल सहित सिद्धस्वभावी ध्रुव में अपनत्व होकर, उसकी सर्वोत्कृष्टता के साथ पर एवं पर्याय के प्रति वर्तने वाले आकर्षण का अभाव वर्तना, यह ही मूल आधार है।
भेदज्ञान के यथार्थ प्रयोग से उपलब्धि . जिस आत्मार्थी की रुचि, तीव्रता के साथ ज्ञायक के सन्मुख होकर आत्मदर्शन करने के लिए तत्पर हो; ऐसा