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भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग
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ज्ञायक की खोज करने वाली अनित्यस्वभावी पर्याय, स्वयं ही नाश को प्राप्त हो जावेगी; फलत: खोज सफल कैसे हो सकेगी ? इसलिये प्रथम यह स्वीकार होना चाहिये कि "मैं तो ध्रुव रहने वाला सिद्ध स्वभावी आत्मा हूँ, मेरा स्वाभाविक परिणमन ज्ञान है अत: मैं तो ज्ञायक हूँ । विकार का तो एक समय की स्थिति ( आयु) लेकर जन्म हुआ है; आगामी समय इसकी उत्पत्ति नहीं हो तो, आत्मा तो सिद्ध स्वभावी था, वही रह जावेगा । ' इस प्रकार की स्थिति समझकर - निर्णयकर, श्रद्धा करने से, अपने स्वभाव की महत्ता - ऊर्ध्वता - अधिकता का विश्वास जाग्रत होगा और विकार की तुच्छता - अनित्यता भासने लगेगी; फलत: सफलता का मूल आधार ऐसी रुचि में उग्रता आ जावेगी और उसके द्वारा, विकार के अभाव का पुरुषार्थ भी तीव्र हो जावेगा। उक्त श्रद्धा के साथ आत्मार्थी ऐसे उपायों की खोज करेगा जिससे विकार का उत्पादन रुक जावे ? यही ज्ञायक की खोज की उपलब्धि है और यही समीचीन दृष्टि है । विकार का उत्पादक कारण क्या ?
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प्रश्न विकार के उत्पादक कारणों को समझाइये ?
उत्तर - आत्मा के अनन्त गुणों में, एक गुण भी ऐसा नहीं है जो विकार का उत्पादन करे; सामर्थ्य के अभाव में आत्मा तो विकार का उत्पादन कर नहीं सकता और पर द्रव्य अथवा द्रव्यकर्मादि भी, आत्मा की पर्याय में, विकार का उत्पादन नहीं कर सकते; क्योंकि उनका आत्मा में अत्यन्ताभाव है, जिनका अभाव ही हो, वे आत्मा की पर्याय में विकार नहीं कर 'सकते। फिर भी जिनवाणी में निमित्त की मुख्यता से द्रव्यकर्मादि को आत्मा के विकार का कर्ता कहा है। वह किस प्रकार है,
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