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________________ (22) दिढ संधिबंध जाणुखण्ण। जंघाजुव पुणु विच्छर सछण्ण।। रत्तुप्पल दल सारिच्छ पाय। णिम्मल णह पह जियइउमणि छाय।। 2/13/4-15 श्रीपाल जब समुद्र पार कर कुंकुंमद्वीप पहुँचता है और वहाँ के राजा को अपने सद्गुणों से प्रभावित करता है, तब वह प्रसन्न होकर उसके साथ अपनी कन्या गुणमाला का विवाह कर उसे अपने दरबार में सम्मान देता है। संयोगवश पापी धवल सेठ भी घूमते-घामते उसी दरबार में आता है और जब श्रीपाल को देखता है तो स्तब्ध रह जाता है। वह सोचने लगता है कि यदि श्रीपाल उसे समुद्र में ढकेलने सम्बन्धी शिकायत राजा से कर देगा तो निश्चय ही उसे मृत्यु-दंड मिलेगा। अतः अपने मंत्री की सलाह से मातंग नामक एक भाँड़ का मुँहमाँगा पारितोषिक देकर उसे राज-दरबार में ही श्रीपाल को अपना सजातीय बंधु घोषित कराने का षड्यंत्र रचता है। भाँड़-मण्डली भी षड्यंत्र के अनुसार ही दरबार में पहुँचती है तथा गीत-नृत्य वंसारोहण आदि के द्वारा राजा का मनोरंजन करके तथा उपहार आदि लेने के बाद श्रीपाल को वे गले लगाकर रोने लगते हैं। दरबार में एक विचित्र वातावरण उत्पन्न हो जाता है। कवि ने उसका चित्रण निम्न प्रकार किया है कोउहलु बहुविह दंसियउ। वंसारोहणु पुणु ववसियउ।। कंसाल-ताल बहु बज्जियाइँ। सुर-नर-खेयर-मण रंजियाइँ।। तं पेक्खिवि राणउ बिंभियाउ। पेरण करणइँ जि पउंजियांई।। राएण पसायं अंकिया। वरवच्छाहरण लंकियाइँ ।। णिउ तुट्ठउ पेक्खिवि वीरु पुणु। तंबोलु समप्पइ जासु मणु।। तक्खणिणा सयल णाडउ मुएवि। धाविय ते हा-हा-सरु मुएवि।। सिरिपालु तेहिं अंकिउ धरिउ। कंठालिंगणु केणवि भरिउ।। किवि चरण धरहिं किवि करि गहहिं । किवि मोहे खणु मुछिवि रहहिं।। किवि पुछहिं पेछहिं गत्तु तुहुँ। किवि धाह पमेल्लिहि गरुयलहु ।। किवि रायहु संसहि पुणु वि पुणु। तब वंसु पवठ्ठउ लद्ध गुणु।। पत्ता कुवि तिय सिरु चुंबिवि मोहु वि मुंजवि जंपइ बहु दिण विच्छुलिउ। इहु वासरु धण्णउ सुहसयपुण्णउ जेम मज्झु सुउ महु मिलउ ।। 7/10/1-12
SR No.007006
Book TitleSvasti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Balbir
PublisherK S Muddappa Smaraka Trust
Publication Year2010
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English
File Size16 MB
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