________________
(19) जिम दाणे सोहइ पउरदव्यु । जिम सीलें सोहइ लोउ सव्वु ।। खमभावें जिम सोहइ मुणिंदु। सपयावें जिम सोहइ दिणिंदु ।। जिम सोहइ सावउ वसन चत्तु । जिम सिस्सु जि सोहइ सगुरु भत्तु ।।
जिम सोहइ तीय सलज्ज चित्त। जिम विहुरकालि सोहंति मित्त।। पत्ता विउसु विवेयं जेम सोहइ लद्ध पमाणउ।
तिम उवयारें एच्छु सोहइ महियलि माणउ।। 5/10/5-12 'पुण्य-महिमा' कवि की दृष्टिं से 'मानव' जीवन की समस्त ऋद्धियों-सिद्धियों का मूल कारण है। उसके बिना ऐहिक सुख-प्राप्ति सम्भव नहीं। कवि कहता है
पुण्णेण पवित्त जि पुत्त-मित्त। पुण्णे तिय लब्भहि कमलवत्त।। पुण्णे णवणिहि संभवहि गेहि। पुण्णेण रोय णउ होंति देहि।। पुण्णे हय-गय-बाहण हवंति। पुण्णे जसु हिंडइ पुणु णहति।। पुण्णे पाविज्जहि सयल भोय। पुण्णेण ण सुहयह पुणु विओय।। पुण्णे धण धंणइ णिरु मणिट्ठ। पुण्णेण पुहमि पुणु जणगरिट्ठ।। पुण्णे विज्जावलु पउरु होइ। पुण्णेण इच्छु वयरिय ण कोई।। पुण्णे जणवल्लहरूववंतु। पुण्णेण मुणइ जिण भणिउ संतु।।
6/15/1-7 'सिद्धचक्र' का माहात्म्य एवं उसके फल के विषय में कवि की विचारधारा निम्न प्रकार है
एयमि वारि जो सुद्धचित्तु। थिरजोयं आराहय विचित्तु ।। तहु टुट्ठ कुट्ठ-खय-जर-अणेय। णउ रोय होंति खयकालतेय।। धण्ण-धण-कलत्त-सुपुत्त-मित्त । कुल-बल-जसेहि ण होंति चित्त।। णारिहु दोहग्ग ण कहव्व होइ। ण वंझरूव ण गुत्त होई।। किं बहुणा जीवहु विगय विग्घु । मणवंछिवच्छु अपय अणग्घु ।।
4/5/1-5 पर-स्त्री लम्पटी पुरुष कवि की दृष्टि में कुल कलंकी हैं तथा संयम एवं शील रूपी सरोवर को सुखा डालने वाले हैं