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________________ स्मृतियों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रमाणिक माना जा रहा है । भारतीय परम्परा में यदि श्रुति-स्मृतियों की विभिन्नता सोची जा सकती है तो महाजन भी अनेक और परस्पर भिन्न दृष्टि वाले क्यों नहीं हो सकते । अतः प्रकृत प्रसंग में महाभारत के इस श्लोक का तात्पर्य कुछ और ही है और उसे समझने के लिए सर्वप्रथम 'महाजन' पट का अर्थ समझना यहाँ उपयोगी हो सकता है। ___आपस्तम्ब धर्मसूत्र जिसे धर्मशास्त्रीय परम्परा का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है, उसमें एक प्रश्न उपस्थापित करते हुए कहा गया है कि, "धर्म और अधर्म यह कहते हुए नहीं घूमते-फिरते कि देखो यह हमारा स्वरुप है । देव, गन्धर्व और पितर इत्यादि भी स्वयं आकर यह नहीं बताते कि यह धर्म है और यह अधर्म । तब फिर धर्म को कैसे जाना जाय ? आपस्तम्ब कहते हैं कि वैसे कार्य जो आर्यो के द्वारा प्रशंसित हो, वह धर्म है और वैसे कार्य जिसकी आर्य निन्दा करें, वह अधर्म है । पुनः आर्य के सामान्य लक्षणे का निर्देश करते हए कहा गया है कि" सभी जनपदों में हमें शिष्ट समाहित. आत्मस्थ. जितेन्द्रिय, अलोलुप और दम्भ रहित आर्य व्यक्ति के आचरणवृत को अपनाना चाहिए अर्थात् उसके सदृश आचारण करना चाहिए ।" इस प्रकार स्पष्ट है कि आपस्तम्ब धर्म-नीति के सार को शिष्टाचार के आचरण में देख रहे हैं और शिष्टाचार का आदर्शभूत रुप हमें आर्यों के आचरण में मिलता है। अतएव आर्य धर्मप्रमाणभूत है । अब आपस्तम्ब धर्म सूत्र में जिसे आर्य कहा गया है वही महाभारत में 'महाजन' पद से अभिहित हुआ प्रतीत होता है । अन्तर केवल इतना है कि आपस्तम्ब जहाँ आर्यो की बात (बहुवचनान्त) करते हैं वहीं महाभारत में आर्य की बात (एकवचनान्त) की गई है। यद्यपि प्रकत प्रसंग में बहवचनान्त 'आर्य' और एकवचनान्त 'महाजन' के प्रयोग से कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता है क्योंकि आर्य अथवा महाजन के सामान्य लक्षण में दोनों का समन्वय हो जाता है । तैत्तिरीयोपनिषद् के एक प्रसिद्ध अवतरण से भी इस बात की पुष्टि होती है कि कर्मविचिकित्सा और वृतविचिकित्सा की स्थिति में हमें अपने आचरण का निर्माण उन्हीं के आचरण के आदर्श पर करना चाहिए जो हमसे श्रेष्ठ हैं । और अपनी श्रेष्ठता को चरितार्थ करते हुए हमें आचारनियम प्रदान करने की स्थिति में हैं । यहाँ श्रेष्ठता की पहचान सम्मशिन (उत्तम विचार वाले), युक्ताः (परामर्श देने में कुशल), आयुक्ताः (कर्म आर सदाचार में पूर्णतया संलग्न), अलूक्षा (सौम्य स्वभाव वाले) और धर्मकायाः (एकमात्र धर्म के अभिलाषी) इत्यादि चारित्रिक गुणों से की गई है। अब देखा जाये तो आपस्तम्ब धर्मसूत्र से लेकर महाभारत तक और उसके बाद जहाँ भी शिष्ट, आर्य एवं महाजन आदि पदों से जिन चारित्रिक विशेषताओं को रेखांकित किया गया है, वे सभी ऋषि-मुनियों के चरित्र पर भी समान रुप से लागू किये जा सकते हैं । ऐसी स्थिति में महाभारत के उपयुद्धृत श्लोक का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि ऋषि-मुनियों को नकार कर केवल-'महाजन' के आचरण-वृत में ही धर्म-नीति का प्रामाण्य ग्रहण किया जाय । वस्तुतः महाभारत के उस श्लोक का निहितार्थ 'धर्मस्य तत्वं 717
SR No.007005
Book TitleWorld of Philosophy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChristopher Key Chapple, Intaj Malek, Dilip Charan, Sunanda Shastri, Prashant Dave
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2011
Total Pages1002
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size30 MB
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