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________________ निहितं गुहायाम्' बताने में है और इस श्लोक में धर्म-नीति के इसी पक्ष को बलपूर्वक प्रस्तावित किया गया है । अब यदि यह सही है तो धर्म-निर्णय को एक मात्र स्रोत उसके आत्मप्रकाशित, अप्पदीप और अन्तःसाक्ष्य होने में निहित हो जाता है। चूकि यह सब कुछ 'महाजन' की कर्म-चेतना में आवश्यक रुप से पाये जाते हैं, इसलिए उसे प्रमाण माना जा सकता है । परन्तु यहाँ द्रष्टव्य है कि धर्म-निर्णय में महाजन के प्रामाण्य को उस अर्थ में सर्वांशत: अनुकरणात्मक नहीं कहा जा सकता जिस अर्थ में साधारणतया अनुकरण शब्द का प्रयोग होता है । कारण यह कि वे सभी गुण-लक्षण जिसके चलते कोई व्यक्ति महाजन पद से अभिहित होता है, उस व्यक्ति के आचरण के बाह्यपक्ष नहीं बल्कि उसकी कर्मचेतना के नियामक आन्तरिक गण कहे जा सकते हैं । ऐसे सभी गुण चेतना के जिस धरातल पर दृढ़ता को प्राप्त होते हैं वह स्व से उपर उठी हुई आत्मचेतन भूमि ही हो सकती है । अतः महाजन के अनुकरण का तात्पर्य महाजन होने में है, उसकी चरित्रिक . विशेषताओं को आत्मसात् करने में है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय नैतिक दर्शन में अन्तःप्रसुत स्वायत्त धर्मबोध को ही सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया गया है और उसके परायत्त स्रोतों को सहायक प्रमाण की भूमिका में स्वीकार करते हुए उन्हें 'परामर्श' से अधिक मान्य नहीं किया गया है गीता में अर्जुन की कर्मविचिकित्सा और वृत्तविचिकित्सा के निवारणार्थ भगवान् श्री कृष्ण उपदेशों का इतना व्यापक उपाख्यान प्रस्तुत करने के बावजूद भी समस्त उपदेशों को 'परामर्श' की भूमिका में समेटते हुए 'यथेच्छसि तथा कुरु' कह कर अर्जुन को आत्मप्रकाशित धर्मबोध के अनुसार आत्मनिर्णय के लिए स्वतंत्र छोड़ देते हैं । परन्तु अर्जुन को आत्मनिर्णय की स्वतंत्रता दिये जाने से भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेशों की निरर्थकता फलित नहीं होती है वस्तुतः आत्मप्रकाशित धर्मबोध की स्थिति 'आत्मसामुख्य' की स्थिति होती है और उससे अनुप्राणित कर्मचेतना में श्रुति, स्मृति और सदाचार इत्यादि नैतिक परामर्श के परायत्त स्रोत वास्तव में 'स्व' बनकर स्व के संकल्पभूत होकर प्रकट होते हैं सामान्य व्यक्तियों का धर्मबोध प्राय: आत्म प्रकाशित धर्मबोध नहीं होता । उनकी नैतिक दृष्टि अन्य के प्रकाश के सहारे ही कर्तव्याकर्त्तव्य का निर्णय ले पाती है । अर्थात् आत्मप्रकाशित धर्मबोध के अयोग्य व्यक्ति में नैतिकता के परायत्त स्रोत एक सामाजिक रुढ़ि बनकर प्रकट होते हैं जब किसी समाज अथवा संस्कृति का नैतिक बोध अधिकांश में रुढ़ सरणियों में चरितार्थ होने लगता है, तो कालान्तर और बदली हुई परिस्थितियों में पूरा पूरा समाज ही एक प्रकार की जड़ता या प्रमाद से ग्रस्त हो जाता है । इस प्रकार की जड़ता तो कभी-कभी युगबोध का रुप धारण कर लेती है. और तब उस परे समाज का भ्रान्त अथवा उपहित धर्मबोध ही आत्मप्रकाशित धर्मबोध का स्थानीय बन जाता है । भारतीय परम्परा में श्रुति-स्मृतियों के नाम पर जात-पात, छुआ-छूत इत्यादि के भेद-भाव जो दिखाई पड़ते हैं, उन्हें इस परम्परा का उपहित औचित्यबोध ही कहा जा सकता है । जबकि श्रुति-स्मृतियों की वह तत्त्वदृष्टि जो भारतीय संस्कृति के औचित्यबोध का मूलगामी रुप से निर्धारक है, उसमें उपर्युक्त 718
SR No.007005
Book TitleWorld of Philosophy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChristopher Key Chapple, Intaj Malek, Dilip Charan, Sunanda Shastri, Prashant Dave
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2011
Total Pages1002
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size30 MB
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