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________________ से उपदेश देने के बाद यह कहते हैं कि हे ! अर्जुन अब तुझे जैसा उचित लगे तू वैसा ही कर । इस प्रकार स्पष्ट है कि श्रुति, स्मृत्यादि प्रमाणों की सूची को हम जितना भी क्यों न बढ़ा लें, वे सभी हमारी कर्मचेतना को अध्युषित और अध्यारुढ़ करने के ही निमित्त मात्र होते हैं । भारतीय नीति-दर्शन में नैतिक कर्त्ता (मॉरल एजेन्ट) की स्वतंत्रता और उसके कर्तृत्व की अनन्यता की दृष्टि से यह बात अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है । यहाँ द्रष्टव्य है कि भारतीय परम्परा की ऐसी नैतिक दृष्टि, वास्तव में, उन संस्कृतियों और सभ्यताओं की नैतिक दृष्टि से एकदम भिन्न है जो किसी महापुरुष अथवा धर्म ग्रन्थ को एकबारगी और अन्तिम प्रमाण मानकर चलती हैं। उदाहरण के लिए सामी संस्कृतियों की नैतिक दृष्टि में 'नैतिक परामर्श' के लिए कोई अवकाश ही नहीं है बल्कि जो कुछ भी है वह सर्वांशत: अनलंघ्य रुप से निर्देशात्मक है। यह अनलंघ्य निर्देशात्मकता एक प्रकार से ईश्वरपरायत्ततावादी दृष्टि है जिसमें ईश्वरीय नियम डेमोक्लीज की तलवार की तरह नैतिक कर्ता के उपर लटकती रहती है। परिणाम स्वरुप ईश्वरीय प्रेम के स्थान पर, वास्तव में, ईश्वरीय भय ही नैतिक जीवन का नियंता बन जाता है । कठोपनिषद् में ठीक इसके विपरीत एक दूसरी दृष्टि मिलती है जिसमें यह कहा गया है कि "ईश्वर हमारे शीश पर गरजने वाला महाभयंकर वज्र है जिसे जानने पर ही मनुष्य अमर हो सकता है क्योंकि आग जलती है, सूर्य प्रकाशित है, देवेन्द्र, वायु और पाँचवीं मृत्यु अपने-अपने व्यापारों में संलग्न हैं, यह सब कुछ क्या उसके भय के कारण ही है (महद्धयं वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवति । भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः । भयादिंद्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचमः । कठोपनिषद् - ॥ (६.३ - २०)। वस्तुतः भारतीय नैतिक दृष्टि में आत्मा-प्रेरित नियम के अतिरिक्त किसी परायत्त नियम को नैतिकता का पर्याप्त प्रमाण माना ही नहीं जा सकता इसीलिए भारतीय और सामी परम्परा की नैतिक दृष्टि के बीच मूलगामी अन्तर को विवेक मूलक स्वायत्त औचित्य - प्रणाली और धार्मिक आदेश मूलक परायत्त आस्था-प्रणाली के रुपमें समझा जा सकता है । भारतीय परम्परा में तो एक कदम और आगे बढ़कर यहाँ तक स्वीकार किया जाता है कि - "तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना, नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां, महाजनों येन गतः स पन्थाः ॥" अर्थात् - धर्म - ज्ञान के लिए तर्क अप्रतिष्ठित है । श्रुति और स्मतियाँ अनेक और परस्पर भिन्न हैं। कोई ऐसा ऋषि-मुनि नहीं जिसे प्रमाण माना जाय। धर्म का तत्त्व तो गुहा के गह्वर में निहित होता है । इसलिए महाजनों के द्वारा चले मार्ग पर चलना ही उचित है । द्रष्टव्य है कि यहाँ पौरुषापौरुषेय श्रुति-स्मृतियों की धर्म-ज्ञान के प्रति निर्णायक भूमिका का विरोध करते हुए एक ओर धर्म-नीति के तत्त्व को गुहा में निहित बनाया जा रहा है तो दूसरी ओर उससे निकलने के लिए 'महाजन' के द्वारा चले हुये मार्ग को धर्ममार्ग कहा जा रहा है । यहाँ यह भी विचारणीय है कि वह 'महाजन' कौन है जिसे श्रुति 716
SR No.007005
Book TitleWorld of Philosophy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChristopher Key Chapple, Intaj Malek, Dilip Charan, Sunanda Shastri, Prashant Dave
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2011
Total Pages1002
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size30 MB
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