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___ इस प्रकार हम देखते हैं कि भारीय नैतिक दृष्टि एक तत्त्वदृष्टि में मूलित होकर अपने को चरितार्थ और प्रमाणित करती है । यही दृष्टि हमें गीता में भी मिलती है जो एक विकट नैतिक दन्द्र के समाधान में प्रस्तत हई हैं। उसका उददेश्य कर्त्तव्याकर्तव्य के द्वन्द्व में निमग्न अर्जुन को उस दुविधा से निकालने के लिए मार्ग निर्देश में निहित है । द्रष्टव्य है कि वह मार्ग निर्देश प्रदत्त परिस्थिति में व्यावहारिक प्रकार का और आर्थिक, राजनैतिक लाभ-हानि पर भी आधारित हो सकता था । परन्तु गीता विचार के उस दिशा को नहीं अपनाती है जो काम और अर्थ पुरुषार्थ मूलक मानदण्डों से निर्धारित होती हो गीता मार्ग-निर्देश का प्रारम्भ ही एक तत्त्वमीमांसीय प्रतिपत्ति से करती है कि "हे अर्जुन तू कर्त्तव्य निर्णय के लिए जिस प्रतिज्ञा को आधार बना रहे हो, अर्थात् कौन मरेंगे और कितने मरेंगे, वह कर्त्तव्य निर्णय के लिए आधार बनने योग्य ही नहीं है । प्रज्ञावान व्यक्ति के लिए जीवन-मृत्यु के विचार का वास्तव में कोई महत्त्व ही नहीं होता" (अशोच्यानन्व शोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासुनगतातूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः)।
III
' अब यहाँ विचारणीय है कि तत्त्वदृष्टि यद्यपि नैतिकता के लिए एक सैद्धांतिक आधार प्रस्तुत करती है लेकिन व्यक्ति के समक्ष विशिष्ट नैतिक परिस्थिति उत्पन्न होने पर उसके निर्णय को प्रभावित करनेवाले अन्यान्य घटक भी होते हैं । अक्सर हम चेतना के साधारण धरातल पर ही उचित-अनुचित के द्वन्द्व का सामना करते हैं । यदि हमारी तत्त्व दृष्टि हमारी जैव बुभुक्षाओं के अनुरुप होती है (जैसा कि चार्वाकीय तत्त्वदृष्टि) तो उसके अनुरुप नैतिकनिर्णय के अनुसरण में कठिनाई नहीं होती लेकिन ईशावास्योपनिषद् अथवा गीता की तत्त्व दृष्टि को सामने रख कर जब हम कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निर्णय लेना चाहते हैं तो हमें साधारण चेतना के जैव धरातल से ऊपर उठकर चेतना की उच्च अवस्था में अवस्थित होना पड़ता है । वस्तुतः चेतना के दो भिन्न धरातल पर एक ही प्रकार के कर्म क्यों न किये जायें और दोनों ऊपर से देखने पर एक ही प्रकार के क्यों न लगें, दोनों कर्मो की कर्मवत्ता और अर्थवत्ता में अन्तर आ जाता है । इस बात को एक उदाहरण द्वारा अच्छे तरीके से समझा जा सकता है । गौतम बुद्ध रात के अन्धेरे में अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर सत्य की खोज के लिए जंगल चले गये । इससे उनकी पत्नी और बच्चे को कष्ट हुआ चित्रकार पॉल गॉगिन भी ऐसे ही घर छोड़ कर चला गया था । अब ऊपर से देखने पर दोनों के द्वारा लगभग एक जैसा ही कार्य किया लेकिन गौतम बुद्ध के उस कर्म को नैतिकता की पराकाष्ठा में देखा गया और उसे 'महाभिनिष्क्रमण' कहा गया लेकिन पॉल गॉगिन के कार्य का नैतिक मूल्यांकन उस रुप में नहीं किया गया । ऐसी स्थिति में दोनों के कर्मों का नैतिक अन्तर केवल चेतना के निम्न और उच्च धरातल के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है । वस्तुतः चेतना के जिस स्तर पर ऐसे कर्म अकर्त्तव्य की कोटि में आते हैं, गौतम बुद्ध चेतना की उससे बहुत उच्च भूमि पर स्थित थे जबकि पॉल गॉगिन वैसा नहीं था ।
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