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की अवधारणा ही वैसी है । ईशावास्योपनिषद् की तत्त्व दृष्टि जिस प्रकार की नैतिकता को प्रस्तावित करती है उसमें ही उपर्युक्त सभी की सम्यक् व्याख्या हो सकती है। यह बात सही है कि सुख कामना जीवमात्र की जैव आकांक्षा है और इसलिए यह स्वाभाविक प्रवृत्ति भी है परन्तु नैतिकता का मूल तो स्वाभाविक प्रवृत्तियों के निरोध में है (प्रवृत्तिरेषा भूतानां निग्रहस्तु महाफला)। अतएव सुख जो सहज प्रवृत्ति मात्र में साध्य रहता है वह उचित-अनुचित, कर्तव्याकर्त्तव्य की कसौटी नहीं बन सकता। भारतीय दर्शनों में भी संसार को दुःखरुप माना गया है और उस दुःख निवृत्ति में ही सुख प्राप्ति की कामना निहित है लेकिन यह सुख देह और इन्द्रियों का सुख नहीं बल्कि आप्तकाम, आत्माराम, आत्मस्वरुपानुध्यायी सुख हैं जो भौतिक कोटि का नहीं बल्कि नितान्त आध्यात्मिक है । भारतीय परम्परा में जिस धर्म विशेष अर्थात् सदसद् विवेक से मनुष्य को परिभाषित किया गया है उसका निहितार्थ जैवस्तर की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के पशुसुलभ अनुधावन के निरोध में ही निहित है। स्वार्थमूलक प्रवृत्तियों की अनुमत सीमा में आत्मबलिदान परक मानवीय प्रवृत्तियों का जिसे कार्ल पॉपर ने 'सुपर ऐरोगेन्ट ड्यूटी' कहा है, उसकी सम्यक् व्याख्या नहीं हो सकती । आत्म प्रेम और आत्मरक्षा से उपर उठकर मनुष्य कोई ऐसे कर्मो को सम्पादित करता है जो अपने स्व के अतिक्रमण या फिर दूसरों में भी अपना ही स्व देखने से सम्भव हो सकता है । भारतीय नैतिक दृष्टि की यह विशिष्टता अधोलिखित श्लोक में पर्याप्त विदग्धता के साथ व्यंजित होते हुए देखी जा सकती है -
उपकारिषु यः साधु साधुत्वे तस्य को गुणः ।
अपकारिषु यः साधु स साधु सद्भिरुच्यते ॥ अतएव सुखवादी नैतिकता की विपन्नता वास्तव में उसके द्वारा स्वीकृत मनुष्य के स्वरुप की ही विपन्नता है । इसीलिए चार्वाकीय सुखवाद को भारतीय परम्परा में कभी सांस्कृतिक स्वीकरण प्राप्त नहीं हुआ । यह सदैव एक पूर्वपक्ष अथवा भ्रष्ट नैतिक दृष्टि के • रुप में ही आलोचित होता रहा है । वास्तव में देखा जाय तो भारतीय नैतिक दृष्टि को व्यापकतर दार्शनिक आधार ईशावास्योपनिषद् की तत्त्व दृष्टि में ही प्राप्त होता है और उसी को यहाँ व्यापक सांस्कृतिक स्वीकरण भी प्राप्त हुआ है । यद्यपि तत्त्वदृष्टि विषयक भारतीय दर्शनों के आपसी मतभेद बहुत गहरे हैं लेकिन धर्म-नीति विषयक मतभेद उतने गहरे नहीं है । इसलिए कहा जा सकता है कि ईशावास्योपनिषद् की तत्त्व दृष्टि भारतीय नैतिक चिन्तन को एक सामान्यीकृत समग्रतावादी आधार प्रदान करती है और इस दृष्टि से इसका अवान्तर तत्त्वदृष्टियों से मतभेद नैतिक चिन्तन के स्वरुप को प्रभावित नहीं करता है । भारतीय धर्मनीति के मूलभूत तत्त्व जो यम, नियम और धर्म के बहुविध लक्षणों में प्राप्त होते हैं, उन सभी की संगति ईशावास्योपनिषद् की तत्त्वदृष्टि से देखी जा सकती है । भारतीय जीवन दष्टि में स्वीकत आश्रम व्यवस्था. ऋण व्यवस्था और पंचमहायज्ञों के माध्यम से कर्त्तव्याकर्त्तव्य का जैसा विधान किया गया है, उसमें धर्म-नीति के उपर्युक्त मूलभूत तत्त्वों का सफलतापूर्वक विनियोग हुआ है।
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