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स्वरुप विषयक है और मनुष्य भी स्वरुपतः उसी का एक अंश मात्र है अथवा दूसरे शब्दों में वह अधिष्ठान तत्त्व मनुष्य के स्वरुप का ही महद् रुप है । पुनः इस मंत्र का दूसरा भाग सीधे-साधे मनुष्य के कर्त्तव्य के स्वरुप विषयक है और कर्तव्य का वह स्वरुप उस परम तत्त्व के स्वरुप से सीधे निगमित होता है।
___ इस प्रकार उपर्युक्त दोनों तत्त्वमीमांसीय दृष्टियाँ दो सर्वथा भिन्न प्रकार के नैतिक चिन्तन को दार्शनिक आधार प्रदान करती है । इसमें चार्वाक की देहात्मवादी, भौतिकवादी तत्त्व दृष्टि को स्वीकार किया जाय तो उस पर आधारित नैतिक दृष्टि घोर सुखवाद के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकती । वह भी ऐसा सुखवाद जिसमें ऐन्द्रिक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार के उच्चतर सुखावबोध के लिए कोई स्थान ही न हो । ऐसे घोर सुखवाद की पराकाष्ठा चार्वाक परम्परा के ही नीलपट सम्प्रदाय के एक वक्तव्य में देखा जा सकता है । 'नीलपट' अपनी आकांक्षाओ को व्यक्त करते हुए कहता है कि नीलपट तभी सुखी रह सकता है जब सभी पर्वत मांसल हो जायें, सभी नदियाँ सुरावहिनी हो जायें
और संसार की समस्त स्त्रियाँ चिरयौवना हो उसके भोग-विलास के लिए प्रस्तुत हों । कुमारिल भट्टे ने चार्वाकीय सुखवाद, जिसमें सुखों के बीच परिमाणात्मक अन्तर तो सम्भव है लेकिन गुणात्मक अन्तर के लिए कोई स्थान ही नहीं; पर कटाक्ष करते हुए उचित ही कहा है कि -
क्रोशतो हृदयेनापि गुरुदाराभिगामिनः ।
भूयान् धर्म प्रसज्येत भूयसि हि उपकारिता ॥ द्रष्टव्य है कि पश्चिमी नैतिक चिन्तन भी बहुलांश में सुखवादी दृष्टि के ही चारों ओर घूमता है । यद्यपि स्वार्थपूर्ण मनोवैज्ञानिक सुखवाद को परिष्कृत करने के प्रयास में पश्चिमी नैतिक चिन्तन का विकास उपयोगितावाद, सामाजिक हितवाद और सूझपूर्ण स्वार्थवाद की ओर हुआ है तथापि अपने स्वार्थ से ऊपर परार्थ की ओर बढ़ने के लिए उनके पास जो युक्ति है वह यही कि मेरा अधिकतम सुख अन्यों के अधिकतम सुख के साथ ही सुरक्षित और निरापद रह सकता है । इस दृष्टि से तथाकथित परार्थ भी वास्तव में स्वार्थ का ही संवर्धन है । सुखवादी नैतिक चिन्तकों का इस ओर ध्यान ही नहीं गया कि अपने सुख की तृष्णा को गौण बनाकर अथवा त्याग कर दूसरों के सुख के लिए प्रयत्न करने में 'सुख' का अर्थ ही मौलिक रुप से बदल जाता है । इसमें पहले का सम्बन्ध संवेदन से और दूसरे का परकल्याण से होता है । पुन: पहले का सम्बन्ध अंहकारमूलक स्व से तो दूसरे का अहंकारातिक्रमण से होता है । पहले में सुख एक जीव-सुलभ एषणा है तो दूसरे. में वह अतिजैविक और अलौकिक होता है । इस तरह अपने सुख की एषणा का तात्पर्य अपने वैयक्तिक सन्दर्भ में जगत् को देखना है जबकि दूसरों के सुख के लिये प्रयत्न करने में जगत् की व्यापकता में अपने को देखना है । पश्चिमी और चार्वाकीय नैतिक चिन्तन में उपर्युक्त अन्तर के लिए कोई अवकाश ही नहीं क्योंकि उनकी मनुष्य के स्वरुप
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