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________________ देह धारण कर ही ईश्वर के समक्ष उपस्थित होना पड़ता है । दूसरी ओर हम देखें तो चेतना-केन्द्रित भारतीय दृष्टिकोण में यह सम्पूर्ण जगत् चेतना का ही जगद्भाव में प्रवर्तन है और उसी के प्रकाश में जीवन की समस्त अर्थवत्ता और अस्तित्व के सारे आयाम एक आधारभूत सामंजस्य एवं वैश्वनियामकता में प्रकट होते हैं । वनस्पति जगत् और पशु जगत् में चेतना पूरे तौर से प्रकृतस्थ होती है लेकिन मानवीय स्तर पर चेतना 'आत्मचेतन' होकर जीवन और जगत् के अपार अर्थराशि का सृजन और अवगाहन करते हुए अपने को इन सब से परे 'आत्मस्थ' भी पाती है । आत्मचेतन चेतना के आत्मस्थ होने में ही उसकी मुक्ति की सम्भावना निहित है । भारतीय परम्परा में चेतना के इस सम्भाव्य और प्रयत्न से लब्ध मक्ति की न केवल बहविध व्याख्या की गई है बल्कि भारतीय जीवनदृष्टि के चूड़ान्त आदर्श के रुप में इसे सर्वातिशायी महत्त्व भी प्रदान किया गया है । इस तरह भारतीय परम्परा में 'मुक्ति' को जीवनादर्श के रुप में स्वीकार किये जाने के कारण कतिपय पाश्चात्य विद्वान् और उनसे प्रभावित लोग यह मानते है कि भारतीय दार्शनिकों ने परमार्थ-विचार को अधिक महत्त्व प्रदान किया और गम्भीर नीति-मीमांसा से या तो बचते रहे या फिर उसे लोक-संग्राहक स्मृतियों के लिए छोड़ दिया यह बात ऊपरी तौर पर सही भी प्रतीत होती है क्योंकि कोई यह कह सकता है कि भारतीय दर्शनों का परमार्थ-विचार या तो नीति-निरपेक्ष है या फिर नैतिकता का अतिक्रामी उदाहरण के लिए छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि ब्रह्मवेत्ता व्यक्ति तो पाप-पुण्य से ऊपर उठ जाता है। ये सभी उसका स्पर्श तक नहीं करते । संन्यासी और आत्मज्ञानी के लिए भी इसी प्रकार की बातें कही जाती हैं कि उन पर धर्म-अधर्म की कसौटियाँ लागू नहीं होती । स्वयं भगवद् गीता में भी यही दृष्टि देखी जा सकती है जबकि कर्म का विवेचन उसका प्रधान विषय रहा है । श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट निर्देश देते है कि यदि तुम सभी धर्मो को छोड़कर मेरी शरण ग्रहो तो सभी पापों से मुक्त हो जावोगे । (सर्वधर्मान् पारित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज । अहंत्वाम सर्वपापेभ्योः मोक्षिस्यामि माशुचः ॥) इसी तरह यदि देखा जाय तो निष्काम कर्मयोग की दृष्टि भी अन्तत: नैतिकतातिकामी दृष्टि ही प्रतीत होती है • एक ओर निष्काम भाव से किये गये कर्म पर उचित - अनुचित के साधारण मानदण्ड लागू नहीं होते तो दूसरी ओर निष्कामता की परिभाषा ही 'निस्त्रैगुण्य' के रुप में की जाती है। हमारे शरीर. मन. बद्धि और अहंकार का सारा कर्मक्षेत्र त्रिगणात्मिका प्रकति की क्रियाशीलता का क्षेत्र है और गीता इन सब का अतिक्रमण कर निस्त्रैगुण्य भाव में मनुष्य की परात्पर विश्रान्ति देखती है । सांख्य दर्शन में भी इसी दृष्टि का समर्थन प्राप्त होता है, क्योंकि उसके अनुसार प्रकृति का सम्पूर्ण क्रिया-व्यापार पुरुष के कैवल्यार्थ है (कैवल्यार्थ प्रवृतेश्च) और यह कैवल्य पुरुष का निस्त्रैगुण्य भाव में प्रतिष्ठा ही है। ___अब यदि उपर्युक्त आलोचनात्मक पूर्वपक्ष के परिप्रेक्ष्य में भारतीय नैतिक दृष्टि पर मूलगामी रुप से विचार किया जाये तो ये सभी आलोचनायें समझ की भ्रान्ति ही प्रतीत होती है । इस तरह से देखने पर वास्तव में भारतीय नैतिक चिन्तन का जो भूषण है 707
SR No.007005
Book TitleWorld of Philosophy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChristopher Key Chapple, Intaj Malek, Dilip Charan, Sunanda Shastri, Prashant Dave
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2011
Total Pages1002
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size30 MB
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