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________________ चिन्तन उस प्रकार से नहीं हुआ है । यदि इस तथ्य को प्रथम दृष्टया स्वीकार भी कर लिया जाय तो भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि यद्यपि भारतीय परम्परा में आचारसंहिता मूलक नैतिक चिन्तन का प्राधान्य रहा है लेकिन उसके पीछे भी एक दार्शनिक दृष्टि रही है । किसी भी आचार - विधान का निर्धारण गतानुगतिक रुप से या समुदाचार के आधार पर नहीं किया गया है । पुनः रामायण, महाभारत और गीता इत्यादि महाकाव्यो में कर्त्तव्याकर्त्तव्य के स्वरुप को लेकर गहन चिन्तन-मनन हुआ है और उनमें अनेकों ऐसे संवेदनशील अर्थगर्भ सन्दर्भ प्राप्त होते हैं जिनके माध्यम से भारतीय परम्परा का नैतिक दार्शनिक चिन्तन अन्दर से झांकता हुआ प्रतीत होता है । द्रष्टव्य है कि पाश्चात्य परम्परा का नीति- दार्शनिक चिन्तन भी उस परम्परा के कतिपय महान् ग्रन्थों जैसे दी एडिपस, डिवायन कॉमेडी, दी किंग लियर और पैराडायज लॉस्ट इत्यादि के माध्यम से उत्कृष्ट अभिव्यक्ति पाता रहा है । इस प्रकार के ग्रन्थों का ऐतिहासिक महत्त्व इस बात में निहित होता है कि इनके माध्यम से एक बहुत बड़े जीवनानुभव का अवलोकन एक बाह्य - दर्शक की भूमिका. में न किया जा कर तादात्म्य अथवा अंतरंग चित्तभूमि पर सम्भव होता है और इस कारण सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन के अन्तर्विरोधों एवं जटिलताओं का आदर्श समाधान उस संस्कृति की विश्वदृष्टि के समग्र परिप्रेक्ष्य में सम्भव होता 1 भारतीय नीति दार्शनिक चिन्तन पर विचार करते हुए प्रथमतया एक महत्त्वपूर्ण बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि यहाँ समस्त सृष्टि को ही एक नैतिक व्यवस्था के रुप में देखा गया है । ऋत और यज्ञ की वैदिक अवधारणा के मूल में यही दृष्टि रही है । इसीलिए 'ऋतम्भरा प्रज्ञा' अर्थात् ऋत को धारण करनेवाली, उसके साथ प्रचोदनात्मक सम्बन्ध में रहनेवाली प्रज्ञा को मानव-बुद्धि का आदर्श कहा गया है (धीयोयोनः प्रचोदयात्) । यही कारण है कि भारतीय परम्परा में नैतिक कर्म का विवेचन एक विश्वदृष्टि विषयक तत्त्वचिन्तन के अंगभूत होकर प्रस्तुत हुआ है । यदि भारतीय और पाश्चात्य नैतिक चिन्तन की प्रकृति पर तुलनात्मक रुप से विचार करें तो कहा जा सकता है कि भारतीय नैतिक चिन्तन जहाँ धर्म की व्यापकतर संकल्पना के परिप्रेक्ष्य में विकसित हुआ है वहीं पश्चिम में नैतिकता का विचार अधिकांशतः काम और अर्थ पुरुषार्थ की अनुमत सीमा में हुआ है । पुनः भारतीय नैतिक दृष्टि जहाँ चेतना - केन्द्रित रही है वहीं पाश्चात्य नैतिक दृष्टि को मानव-केन्द्रित कहा जा सकता है । मानव-केन्द्रित नैतिक दृष्टि में मनुष्य एक ओर जहाँ सभी वस्तुओं का मापदण्ड (होमोमेनसुरा) बनता है तो दूसरी ओर जीवन की समस्त अर्थवत्ता का निर्धारण देह-विशिष्ट चेतना की वृत्तियों की सीमा में ही किया जाता है । इस दृष्टि का आदर्श 'मुक्त-चेतना' कभी हो ही नहीं सकती, क्योंकि चेतना सदैव सापेक्ष चेतना है । दृष्टव्य है कि इस दृष्टि में चेतना सदैव इन्द्रिय सापेक्ष, बुद्धि सापेक्ष, कर्म सापेक्ष और विषय सापेक्ष ही होती है । अतएव चेतना की अन्य की अपेक्षा से मुक्त होने की कोई सम्भावना ही नहीं बनती है । यह दृष्टि पश्चिम की धार्मिक दृष्टि में भी इस कदर निगुढ़ है कि यहूदी, ईसाई और इस्लाम परम्परा में 'जजमेंट' के दिन भी जीवों को अपना पूर्व 706
SR No.007005
Book TitleWorld of Philosophy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChristopher Key Chapple, Intaj Malek, Dilip Charan, Sunanda Shastri, Prashant Dave
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2011
Total Pages1002
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size30 MB
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