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मूलगामी भारतीय नैतिक दृष्टि
- प्रोफे. अम्बिकादत्त शर्मा प्रोफेसर ए.जे.एयर ने नॉवेल स्मिथ की प्रसिद्ध पुस्तक 'एथिक्स' की प्रस्तावना लिखते हुए नैतिक-उपदेशक और नीति-दार्शनिक में स्पष्ट अन्तर को प्रस्तावित किया था इस अन्तर को ध्यान में रखते हुए आचार-संहिता मूलक नैतिक चिन्तन और दार्शनिक नैतिक चिन्तन के स्वरूप में भी महत्त्वपूर्ण अन्तर को रेखांकित किया जा सकता है । उपदेशात्मक नैतिक चिन्तन वह है जो हमारे समक्ष विधि-निषेध परक एक विस्तृत और व्यापक आचार-संहिता को प्रस्तावित करता है और साथ ही उसके पालन के लिए हमें प्रोत्साहित भी करता है । ऐसे नैतिक विचार किसी धर्मगुरु अथवा महापुरुष द्वारा उपदिष्ट देश-काल और संस्कृति सापेक्ष होते है। यह बात अलग है कि इस प्रकार का संस्कृतिसापेक्ष नैतिक विचार भी कुछ अंशो में सार्वभौमिकता को लिये रह सकता है । इसके विपरीत नैतिक-दार्शनिक चिन्तन हमारे समक्ष न तो किसी प्रकार की आचार-संहिता का प्रस्ताव करता है और न ही उस पर अमल करने के लिए हमें प्रोत्साहित ही करता है यहाँ तक कि नैतिक-दार्शनिक चिन्तन का कार्य हमारे कर्मो के औचित्यानौचित्य पर निर्णय देना भी नहीं है । वस्तुतः नैतिक-दार्शनिक चिन्तन अपने स्वरूप में विमर्शात्मक और विश्लेषणात्मक प्रकृति का होता है जिसका मुख्य कार्य नैतिक निर्णयों के स्वरूप का विवेचन करना है । अधिक मूलगामी रुप से कहें तो यह नैतिक - निर्णयो के स्वरूप का विवेचन करते हुए प्रकटतः उन विशिष्ट मानकों की खोज-बीन भी करता है तथा उन आदर्शों और मूल्यों की व्याख्या भी करता है जो उन विशिष्ट मानकों को सम्भव बनाते है ।
___ अब यदि उपर्युक्त दृष्टि से नैतिक चिन्तन की भारतीय परम्परा पर विचार किया जाय तो कहा जा सकता है कि भारत में आचार-संहिता मूलक नैतिक चिन्तन का एक लम्बा और समृद्ध इतिहास रहा है । गृहसूत्रों, धर्मसूत्रों, और धर्मशास्त्रीय परम्परा के विभिन्न स्मृतियों एवं नीतिग्रन्थों में विधि - निषेध मूलक आचार-संहिता के व्यापक सन्दर्भ प्राप्त होते है । भारतीय परम्परा में इसे 'धर्म' कहा गया है और यह धर्म पद इस विशेष सन्दर्भ में 'न्याय' संज्ञा से भी अभिहित हुआ है। यहाँ न्याय से तात्पर्य उस आचार-संहिता से लिया गया है जिसका प्रतिपादन विभिन्न समयों में मनु आदि स्मृतिकारों ने वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था और पुरुषार्थ व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए किया हैं (धर्मो नाम न्यायः। किम नाम न्यायः? मन्वादिक प्रतिपादित आचारो नाम न्यायः)। परन्त. दसरी ओर. भारतीय परम्परा में नैतिक-दार्शनिक चिन्तन उस रुप से व्यवस्थित रुप में नहीं हुआ है जितना कि व्यवस्थित रुप में इस प्रकार का चिन्तन ग्रीक दार्शनिकों और आधुनिक पाश्चात्य नैतिक चिन्तकों ने किया है । ऐसा अक्सर ही कहा जाता है कि भारत में यद्यपि तत्त्वचिन्तन बहुत उत्कृष्ट कोटि का और व्यवस्थित रुप में हुआ है लेकिन स्वायत्त रुप में नैतिक दार्शनिक
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