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Prakrit Verses in Sanskrit Works on Poetics
144) Paadiasanehasambhava ( ? )......
(p. 401) पअडिअ-सणेह-सब्भाव-विन्भमं तीअ जह तुम दिट्ठो। संवरण-वावडाए अण्णो वि जणो तह च्चेअ॥ (प्रकटित-स्नेह-सद्भाव-विभ्रमं तया यथा त्वं दृष्टः । संवरण-व्यापृतया अन्यो ऽ पि जनस्तथा चैव ॥)
-GS II. 99
This gātha is cited also in the SK ( III. v. no. 128, p. 373) in the same context. The GS reads the first half as :
पाअडिअ-णेह-सब्भाव-णिन्भरं तीअ जह तुम दिट्ठो। (प्रकटित-स्नेह-सद्भाव-निर्भरं तया यथा त्वं दृष्टः । )
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145) Ditthai janna diththo ( ? ).....
(p. 401) दिट्ठाइ जं ण दिट्ठो, आलविआए वि जं ण आलविओ। उवआरो जं ण कओ तं चिअतेण अ कलिअं छइल्लेहि ॥ (दृष्टया यन्न दृष्ट आलपितयापि यन्नालपितः । उपचारो यन्न कृतस्तदेव कलितं छेकः ( = आकलितं विदग्धः) ।।
This gatha is cited also in the SK (III. v. no, 129, p. 373). It is also cited further on in the SK (V. v. 252, p. 643)
146) Goramgau taruniano......
(p.402)
For this Apabhramsa passage vide Appendix I.
(p. 404)
147) Mohavirame sarosam.......
मोह-विरमे सरोसं थोर-त्थण-मंडले सुर-वहूणं ।
जेण करि-कुंभ-संभावणाइ दिट्ठी परिढविआ ॥ - (मोह-विरमे सरोषं स्थूल-स्तन-मण्डले सुरवधूनाम् ।
येन करि-कुम्भ-संभावनया दृष्टिः परि-स्थापिता ॥ )
This gātha is quoted in SK ( III. v. 109, p. 364 ) in identical context.