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2. रंग:
जैन-दर्शन के अनुसार 5 मूल रंग होते हैं, काला, नीला (आसमानी), लाल, पीला और सफेद पानी का रंग लाल बताया गया है। हालांकि पानी की काया साधारणतया पारदर्शी मानी गई है। यानि अधिकांश प्रकाश उसमें से अपवर्तित (पार) हो जाता है। तब प्रश्न उठता है कि पानी का रंग लाल क्यों बताया गया है ? हो सकता है कि सूक्ष्म स्तर पर उसकी काया (नये सिद्धांत के अनुसार जालीनुमा नो 'ट्यूब की इकाई) के षष्टीनुमा या पंचनुमा अंगों के झुकाव से इस प्रकाश का परावर्तन होता हो । दूसरे रंगों के साथ किरणें अपवर्तित हो जाती है। किसी तरल द्रव्य में, सूक्ष्म पाइपनुमा काया के बेतरतीब झुकाव के कारण, प्रकाश बिखरकर, अपवर्तित होता जाता है। बहुत कम मात्रा में परावर्तित प्रकाश लौटकर आता है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार किसी भी काया की सतह की विषम (असमानकृति) बनावट तथा परिरेखा के कारण, परावर्तित प्रकाश का स्वभाव (लक्षण) बदल जाता है। प्रकाश को विद्युत चुम्बकीय तरंगों के रूप में माना गया है, जो दृश्यमान स्पेक्ट्रम (वर्णक्रम) में पड़ता है। आपतित विकिरण भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थों से भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभावित होता है । तथा निर्भर करता है कि उसके अणु या रवे की बनावट, परिरेखा और सतह की परिसज्जा किस प्रकार की है तथा आपतित प्रकाश को सोखने व अपवर्तन करने की उसकी क्षमता कितनी है । जब परावर्तित किरणें, आँखों के रेटिना पर पड़ती है, तो उस पिंड की काया के रंग का आभास, उस पदार्थ की रूपान्तरित विद्युत-चुम्बकीय गुण के अनुसार होता है। रंग का प्रकार, पदार्थ के तापक्रम पर भी निर्भर करता है, क्योंकि इसके कारण पदार्थ के सतह की बनावट / रूपरेखा बदल जाती है ।
जरूरत है इस विषय पर आगे और प्रयोग करने की ।
3. स्वादः
विज्ञान के अनुसार पानी स्वादहीन है । लेकिन जैन-विज्ञान के अनुसार ऐसा स्थूल स्तर पर हो सकता है। सूक्ष्म स्तर पर जैन - विज्ञान में ऐसा नहीं बताया गया है। वह स्वाद रहित नहीं है । स्वाद के पाँच मूल प्रकार हैं, तीखा, कसैला, खट्टा और मीठा । स्वाद का अनुभव "बद्ध - पार्श्व स्पर्श" क्रिया द्वारा होता है, यानि स्कंध पहले इंद्रिय विशेष (जिव्हा ) के कोषाणुओं का स्पर्श करता है, फिर उसके साथ बंध करता है ।
कड़वा,
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विज्ञान के अनुसार, ये स्वाद कणों की रासायनिक क्रिया द्वारा अनुभव किये जाते हैं, जब वे जिव्हा पर पहुँचते हैं। यह अणुओं के चक्रणी इलेक्ट्रोन की स्थिति -ऊर्जा
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