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पर निर्भर करता है, क्योंकि वे उन अणुओं को जिव्हा के विभिन्न कोषाणुओं के साथ क्रिया करने में सक्षम बनाते हैं। जिव्हा की सतह पर विभिन्न प्रकार के गुच्छ, जो कि समान प्रकार के कोषाणुओं से बने होते हैं, उसकी विभिन्न जगह पर बने होते हैं। हर गुच्छा/समूह एक विशेष प्रकार का स्वाद, उस रासायनिक क्रिया के अनुरूप समाचार को मस्तिष्क के कोषाणुओं को प्रेषित करके पैदा करता है। मस्तिष्क के कोषाणु, उन विभिन्न प्रकार की सूचनाओं को पहचान कर, विभिन्न प्रकार के स्वाद का आभास कराते हैं। इस तरह जैन – विज्ञान और आधुनिक विज्ञान द्वारा मान्य तरीकों में आश्चर्यजनक रूप से समानता है। हालांकि विज्ञान पानी को स्वादरहित मानता है, लेकिन जैन-विज्ञान के अनुसार सूक्ष्म स्तर पर पानी में एक या एक से अधिक स्वाद का सम्मिश्रण होता है।
4. सुगन्धः जैन-विज्ञान और आधुनिक विज्ञान स्थूल दृष्टि से पानी को गन्धरहित मानते हैं। लेकिन जैन-विज्ञान सूक्ष्म स्तर पर इसको गंधरहित नहीं मानकर, उसमें एक गंध मानता है। दो मूल प्रकार की गंध मानी गई है, सुगन्ध और दुर्गन्ध । जैन-विज्ञान के हिसाब से गंध की पहचान भी बंध-पार्श्व स्पर्श क्रिया द्वारा होती है। विज्ञान के अनुसार गंध के पुद्गल/अणु हवा में तैरते हुए हमारे नाक की अन्दरूनी सतह पर पहुँचते हैं। ये अणु उस पदार्थ विशेष द्वारा हवा में छोड़े जाते हैं। वाष्पशील पदार्थ उनको बहुत तीव्र गति से छोड़ते हैं, जब कि ठोस या अवाष्पशील पदार्थ उनको बहुत धीमी गति से आस-पास के वातावरण में छोड़ते हैं। नाक की अन्दरूनी सतह खुरदरी होती है। इसकी परिरेखा और बनावट टेढ़ी-बांकी होती है। भिन्न-भिन्न जगह पर इनकी सतही आकृति भिन्न-भिन्न होती है। जब गंध के कण इन जगहों पर पहुँचते हैं, तो वे किसी विशिष्ट स्थान की अंदरूनी सतह से वहाँ चिपक जाते हैं, जहाँ सतह की आकृति उस कण की बाह्य आकृति से मेल खाती है। वहाँ वह अपनी उल्टी आकृति के अनुरूप, जोड़ी बनाकर ठीक तरीके से चिपक जाता है (fig la)| गंध के ये अणु अपनी विशिष्ट आकृति का आंकड़ा (data), उनसे जोड़ी बनाने वाले प्रतिमुखी भागीदार के द्वारा, मस्तिष्क के कोषाणुओं को संप्रेषित करते हैं। मस्तिष्क के ये कोषाणु तब उसी के अनुरूप गंध की अनुभूति पैदा करते हैं।
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