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पानी जंगल व खेतों में पृथ्वीकाय से पूर्णतः परिणत नहीं होता है। अतः मिश्र रहता है। बहुत तेज वर्षा होती है, तो प्रारम्भ का वर्षा का जल पृथ्वीकाय के संपर्क से परिणत होकर मिश्र होता है। लेकिन बाद में बरसने वाला जल सचित्त होता है। वर्षा काल में घर की छत पर लगे खपरेल के अंत भाग से टपकने वाला पानी नीव्रोदक कहलाता है। रजकण, धूम का कालापन तथा दिनकर के आतप से तप्त नीव्र के संपर्क से वह जल अचित्त हो जाता है। नीव्रोदक, वर्षा रूप होने के अंतर्मुहूर्त पश्चात ग्रहण करने वाले नियम साधकों के लिए बताया गया है। बरसती वर्षा में नीव्रोदक का जल मिश्र होता है। वर्षा के रूक जाने के पश्चात् लिए गये नीव्रोदक में राख डाली जाय, तो वह काफी समय तक पुनः सचित्त नहीं होगा। वैसे राख से पानी को अचित्त बनाना ज्यादा सुगम और निरापद है, क्योंकि वह बर्तनों को मांजने के काम भी आती है। इस पर ज्यादा खुलासा अन्यत्र दिया गया है। जहाँ काल-नियमन संभव नहीं होता है, उस जल की परिणति में अनियतता रहती है अतः उस जल को सचित्त या मिश्र ही समझना ज्यादा उचित्त लगता है।
अप्काय की अचित्तता चार प्रकार से होती है - 1. द्रव्यतः, 2. क्षेत्रतः, 3. कालतः 4. भावतः । (पिंड नियुक्ति, P111)
द्रव्यतः स्वकाय या परकाय से जो पानी अचित्त होता है, वह द्रव्यतः
है।
क्षेत्रतः क्षार क्षेत्र का पानी और मधुर क्षेत्र में उत्पन्न पानी का आपस में संपर्क होने से जो पानी अचित्त होता है, वह क्षेत्रतः है। इसमें क्षेत्र विशेष की प्रधानता विवक्षित है। अलग-अलग प्रकार के मौसम (Climate) के क्षेत्रों में ले जाने से, आहारादि की भिन्नता से जो पानी अचित्त हो जाता है, वह भी क्षेत्रतः अचित्त होता है। कालतः स्वभावतः वायु क्षय होने पर जो पानी अचित्त हो जाता है, वह कालतः है। अतिशय ज्ञानी ही इस बात को जान सकते हैं, छद्मस्थ
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नहीं।
भावतः वर्ण, रस आदि के बदल जाने से, जल भावतः अचित्त बन जाता है।
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