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(ii)
(iii)
(iv)
2.
(ii)
(iii)
अप्कायिक जीवों का उपपात (जन्म स्थान ) क्षेत्र अन्य जीवों द्वारा कदाचित् ग्रहण किया हुआ है, कदाचित् ग्रहण किया हुआ नहीं होता है और कदाचित् अंशतः ग्रहण किया हुआ और कदाचित् अंशतः ग्रहण नहीं किया हुआ, उभय स्वभाव वाला भी होता है । यहाँ आत्मा भौतिक शरीर में प्रवेश करती है। इस प्रकार इन जीवों में तीनों प्रकार की योनियाँ होती है ।
(iv)
एक आत्मा मृत पानी -रूप योनि में प्रवेश करती है, तो उस अचित्त योनि में सचित्त योनि मिल जाती है और सचित्त अप्काय के जीव की उत्पति होती है
जब यह सचित्त पानी में प्रवेश करती है, तो उसे सचित्त योनि मिल जाती है। अतः उसे सचित्त-अचित्त का परिणमन नहीं करना पड़ता है।
अन्य रूप में योनियों के 3 भेद इस प्रकार हैं। 1. शीत योनि 2. उष्ण योनि 3. शीतोष्ण योनि । अप्कायिक जीव उष्ण योनि वाले होते हैं। अपने नामकर्म के उदय के अनुसार जीव अपनी योनि का चयन करता है तथा सर्व प्रथम उस योनि में उपलब्ध पदार्थों से अपने संपूर्ण भावी जीवन में होने वाली घटनाओं की रूपरेखा बना लेता है ।
पानी की सचित्तता :
अप्काय के 3 भेद हैं :
प्रकार हैं : -
निश्चय सचित्त और व्यवहार सचित्त अप्काय ।
(i)
सचित्त, मिश्र और अचित्त । सचित्त अप्काय के दो
घनोदधि नरक पृथ्वी का आधारभूत ठोस अप्काय वाला समुद्र । इसी तरह घनवात, घनवलय करक-ओला तथा समुद्र और द्रह, वो बहुमध्यभाग में निश्चय सचित्त (एकांत सचित्त) अप्काय होता है। कूम, वाणी, तड़ाग आदि का अप्काय व्यवहारतः सचित्त होता है । अनुद्वृत उष्णजल तथा बरसती हुई वर्षा का पानी मिश्र अप्काय होता है । अनुवृत्त उष्णजल : पहले उबाल वाला उष्णजल कुछ परिणत होता है, अतः मिश्र है। तीन उबाल वाला जल प्रासुक माना जाता है (अचित्त)
बस्ती में बरसने वाला जल, मनुष्य, तिर्यंच के आवागमन से भी पूर्ण अचित्त नहीं हो जाता है । अतः मिश्र होता है । उसी प्रकार कम वर्षा में
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