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(H-10) जैन-दर्शन और आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में जल जैन दर्शन में जल को न केवल एकेन्द्रिय जीव ही कहा गया है, अपितु उसके कई विशेष गुणों का वर्णन भी किया गया है। कुछ गुणों की नीचे व्याख्या की गई है।
साधारण परिभाषाः 'गोम्मटसार' के जीव-काण्ड (दिगम्बर जैन समाज का धार्मिक ग्रन्थ) के अनुसार जैन दर्शन में 'जल' शब्द निम्नलिखित 4 प्रकार से प्रयोग में लिया गया है: जल : सचित्त और अचित्त जल का मिश्रण। जल जीवः बाटे बहती आत्मा जो जलजीव बनेगी या जलजीव से आई है। जल कायः अचित्त पानी या पानी की निर्जीव काया। जल कायिकः सजीव जल।
जैन दर्शनानुसार जल के सामान्य गुणः योनि (प्रज्ञापना, नवमा योनि पद)
यह वो जन्म स्थान है, जहाँ पर आत्मा भौतिक शरीर में प्रवेश करती है। अपने नामकर्म के उदय के अनुसार जीव अपनी योनि का चयन करता है। तथा सर्वप्रथम उस योनि में उपलब्ध पदार्थों से अपने संपूर्ण जीवन में होने वाली घटनाओं की रूपरेखा बना लेता है। जल की 7 लाख योनियाँ होती हैं, जहाँ अप्काय के जीव च्यव कर विकसित हो सकते हैं। जैसे बरसात का पानी, ओस का पानी, घड़े का पानी, सागर का पानी, कुएँ का पानी, झील का पानी, कोहरे का पानी, हिम-नद, झरना, बर्फ, ओले, बादल आदि का पानी इत्यादि। वे तीन प्रकार की होती है। 1. सचित्तः जीव-प्रदेशों से संबंध योनि सचित्त योनि कहलाती है। 2. अचित्तः जो योनि जीव रहित हो, वह अचित्त योनि है, और 3. मिश्रयोनि : जो योनि अंशतः जीव प्रदेश सहित और अंशतः जीव रहित है, यानि सचित्त और अचित्त उभय रूप हो, वह सचित्ताचित्त योनि कहलाती है।
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