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________________ पानी, अग्राह्य ही रहता है। इसके अतिरिक्त उसमें रही "ऑक्सीजन" में भी कोई बदलाव नहीं आता है। इन सब तथ्यों से ऐसे पानी की कालमर्यादा भी बहुत कम होने की सम्भावना प्रबल होती है। प्रश्न 23 : विनम्रता के साथ कहना पड़ रहा है कि जो रूढ़िग्रस्त साधक लोग पौंछे का पानी ले लेते हैं, उस पद्धति को निरूत्साहित करना चाहिए, खासकर स्वास्थ्य और स्वच्छता के दृष्टिकोण से। यह प्रथा अजैन समाज का ध्यान खींचती है और उनमें हमारे साधकों के प्रति घृणा के भाव पैदा करती है। वे हमारे समाज को गंदा, अस्वच्छ, घिनौना और घृणास्पद समझने लगते हैं। विज्ञान के हिसाब से भी ऐसे पानी को किसी भी प्रकार से साधकों के लिए उपयुक्त नहीं माना जा सकता है। उत्तर: इस प्रथा में मूल सिद्धांत पानी को बचाना तथा पुनः काम में लेना है। (पर्यावरण संरक्षण के 3R=Reduce, Reuse & Recycle, घटाना, पुनरूपयोग और पुनरावर्तन करना)। यदि पानी जैसे संसाधन को कोई Reuse और Recycle कर सकता है, तो उस प्रथा / पद्धति को हतोत्साहित करने के बजाय, प्रोत्साहित करना ज्यादा उचित होगा। साधारणतया गृहस्थ पौंछे के पानी को फेंकने के बजाय संग्रहीत कर लेता है। यदि पौंछे में कोई रसायन प्रयुक्त नहीं किये हो, तो उस संग्रहीत पानी को निथार व छान कर काफी साफकर लिया जाता है। यह छना हुआ पानी (धोवन के रूप में रहता है) ज्यादा मैले कपड़ों को साफ करने के काम में या मलमूत्र साफ करने के काम आ सकता है। यह सब व्यक्ति का विवेक है कि वह किस प्रकार पानी का संरक्षण कर पर्यावरण की रक्षा में सहयोग दे सकता है। उपरोक्त पद्धति में, शुद्धता की श्रेणी का, कार्य की यथोचित आवश्यकता से सुमेल बैठाने का सिद्धांत, काम करता है। यहाँ अकबर और बीरबल का वह उदाहरण उपयुक्त नजर आता है, जब बीरबल ने बादशाह को एक गिलास वो पानी पिला कर वाह-वाही लूटी, जिस पानी को अकबर ने सबसे बदबूदार बताकर उससे घृणा की थी। बीरबल ने उसी गंदे पानी को निथार कर, छान कर तथा संशोधित कर सुगन्धित बना दिया था। शुद्धता का, कार्य की आवश्यकता के अनुरूप सुमेल बैठा देने से, घृणा को प्रशंसा में बदल देना संभव है। वास्तव में घृणा तो हमारे पूर्व के विचार व दुराग्रह से ही ज्यादा प्रभावित रहती है, न कि वस्तु निहित होती है। ऐसा ही एक उदाहरण जैन वाड्मय के 'ज्ञाताधर्मकथा' आगम के 12वें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006761
Book TitleScience of Dhovana Water
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJeoraj Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2012
Total Pages268
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size13 MB
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