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________________ आदि क्रियाओं से होने वाली हिंसा को आगम में अशक्य परिहार कहा गया है। इसमें कर्मबंध सबसे कमजोर होता है। (प्रथम श्रेणी का)। लेकिन पानी को सचित्त या अचित्त अवस्था में संग्रहीत करना तो हमारी इच्छा पर निर्भर करता है। ये क्रियाएँ घर – गृहस्थी चलाने की जरूरत से संबंधित है, तथा हमारे विवेक से प्रभावित होती हैं। ये आरम्भजा हिंसा की श्रेणी में आती है। इनसे जो कर्म बंध होता है, उसकी मजबूती दूसरी श्रेणी की होती है। हमारा विवेक बताता है कि हम लगातार प्रयासरत रह कर, व्यर्थ में हो रही हिंसा को कम करें या हटा दें। यही भावना हमें धोवन आदि अचित्त पानी के उपयोग के लिये प्रेरित करती है। उन मर रहे जीवों के प्रति उमड़ रही करुणा या विवशता, हमारी आंतरिक शक्ति को बढ़ाती है, तथा चित्त शुद्धि में सहायक बनती है। अन्यथा व्यक्ति प्राकृतिक संसाधनों के प्रति लापरवाह बनकर अन्धाधुन्ध दोहन करेगा। इस प्रकार वह पर्यावरण संतुलन का महान दुश्मन बन जायेगा। प्रश्न 20 : एक गिलास पानी को अपने उपयोग के लिये सीधा नल से लिया जा सकता है। संभव हो तो गरने आदि से छानकर सूक्ष्म त्रस जीवों की रक्षा की जा सकती है। इस व्यवस्था में पानी का संग्रहण नहीं करना पड़ेगा, जिससे पूर्व प्रणाली में घड़े में हो रही हिंसा से बच सकेंगे। उत्तर : उपरोक्त व्यवस्था में नल का पानी या तो छत पर रखी टंकी या अन्य तालाब से आता है। व्यक्ति जानता है कि उसने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि जब भी जरूरत पड़ेगी, तो नल से पानी उपलब्ध हो जायेगा। इसका एक मतलब यह हुआ कि पूरा पाइप आदि का तंत्र उसके लिये संग्रहण का काम कर रहा है। यदि घड़ों में भंडारण करते हैं तो वे श्रावक परिमाण रखने वाले गृहस्थ की श्रेणी में आ जाते हैं। यदि जागरुकता नहीं है तथा उसके लिये अपरिमित जल हर समय उपलब्ध रहता है तो वह गृहस्थ अवति और अपरिमाण वाले श्रावक की श्रेणी में आ जाता है। आगमानुसार परिग्रह परिमाण करने वाले गृहस्थ को हिंसा का दोष कम लगता है। इसके अलावा घड़े में संग्रहण न करके नल से सीधा पानी लेने वाला गृहस्थ पूरे पाइप तंत्र में रहे हुए अपरिमित पानी की हिंसा का भागी बनता है, क्योंकि उस तंत्र के साथ उसका ममत्व और स्वामित्व का भाव बना हुआ है। यह स्थिति कमोबेश सार्वजनिक नलों आदि के लिये भी लगती है, यदि अलग से भण्डारण की व्यवस्था नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006761
Book TitleScience of Dhovana Water
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJeoraj Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2012
Total Pages268
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size13 MB
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