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ये सभी आवश्यक क्रियाएँ आरम्भजा हिंसा के दायरे में आती हैं, क्योंकि ये जीवन को बनाये रखने के लिये जरुरी है। इससे कर्म बंध ज्यादा मजबूत नहीं होगा। सब्जी काटना आदि क्रियाएँ जानकर जरूर की जाती हैं, लेकिन इसमें हमारी विवशता व करूणा की भावना रहती है न कि खुशी की। उत्तराध्ययन सूत्र (२/३१) में स्पष्टीकरण दिया गया है कि भोजन अपने आप को जिंदा रखने के लिये किया जाता है। हम अपने व्रतों पर मजबूत रहें, इस लिये किया जाता है। चूंकि अग्निकाय से होने वाली हिंसा, शायद दिन भर में होने वाली अप्काय की हिंसा से बहुत कम होती है। अतः उबले हुए पानी को भी काम में लेने का सुझाव दिया जाता है। उबालने के लिये अग्निकाय की जगह यदि सौर ऊर्जा का प्रयोग किया जाय जो उस हिंसा को एकदम से हटाया जा सकता है। सौर हीटर को उपयोग में लेने से यह उजागर होगा कि हम हिंसा के अल्पीकरण में कितनी सजगता रखते हैं। हम आरम्भजा हिंसा को ठीक से समझ पाये हैं। अन्यथा यदि समझते हुए भी कि सौर हीटर अहिंसक है, हम उसके उपयोग में उदासीनता बरतते हैं तो जैन श्रावक होने की भावना का निरादर करते हैं। सौर हीटर के उपयोग से न केवल अग्निकाय की बल्कि वायुकाय के जीवों की विराधना से बचते हैं। खासकर वे साधक सतर्क हो जायें जो अपने लिए पानी को गर्म करने की प्रेरणा देते हैं। यदि सौर चूल्हे के उपयोग की प्रेरणा नहीं देते हैं, पानी को गर्म करने के लिये तो निश्चय ही महान हिंसा के भागी बनते हैं। ऐसा समझ में आता
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उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर श्रुतधर साधुओं से भी पूछा गया, उनके स्पष्टीकरण इस प्रकार मिले हैं (साथ ही में देखिये "धोवन के लिये अनुपयुक्त पदार्थों के विश्लेषण" शीर्षक में 'धोवन और अकर्मक अवस्था में दिये गये प्रश्न का उत्तर भी) हिंसा का कारण/निमित्तः जब कच्चा पानी का घर में भण्डारण किया जाता है, तो उसमें असंख्य जन्म-मरण की श्रृंखला प्रतिक्षण लगातार चलती रहती है। एक प्रकार से जन्म-मरण का व्यवहार दृष्टि से मैं निमित्त बनता हूँ। अतिरिक्त हिंसा / विराधनाः जब भी पानी के घड़े से हम गिलास द्वारा
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