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किसी जीव की रक्षा नहीं हो रही है। लेकिन इसके पीछे रहे विवेक को समझने की कोशिश करते हैं। जब हम कच्चे पानी का घड़ों में भण्डारण करते हैं, तो उसमें रहे जलकायिक जीव हमसे भयभीत रहते हैं। यह हर असहाय जीव की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। हमारा उद्देश्य भी उस पानी को खपाने का रहा हुआ है। यानि हम उन जीवों को मारेंगे ही। इस कच्चे पानी में जीवन-मरण की श्रृंखला उसके स्वभाव से बराबर चलती रहती है। जब तक हम उसको काम में नहीं ले लेते हैं। अतः उस जन्म-मरण का निमित्त दोष, व्यवहार दृष्टि से हमें लगेगा ही। जब इस पानी को उबाल कर अचित्त बनाया जाता है, तो उसके अन्दर रहे सभी जलकायिक जीव एक बार मारे ही जायेंगे। उसके बाद उसमें उस पानी की काल मर्यादा तक कोई भी नया जीव पैदा नहीं होगा। इस प्रकार कुल जीव हिंसा की संख्या उस पानी में काफी मात्रा में अल्प हो जायेगी, जिसको हमारे उपयोग के लिये भण्डारण करके रखा गया है। इस प्रकार अचित्त और सचित्त पानी के भण्डारण में हो रही हिंसा में बहुत ज्यादा फर्क रहता है। पहले वाले प्रसंग में केवल एक बार (1012 घंटे तक) असंख्य जीवों की हिंसा होती है, जबकि दूसरे प्रसंग में 10 - 12 घंटे तक हर क्षण में असंख्य जीवों की हिंसा होती रहेगी। इन दोनों प्रसंगों में त्रसकाय के जीवों की संख्या में ज्यादा फर्क नहीं
रहता है। प्रश्न 16 : यह तो आपका तर्क है। आपको उन जीवों के मरने व अन्य कष्टों का
अनुभव नहीं हो सकता। यदि हम एक गिलास में कच्चा पानी भर कर उसी से पूछे कि वो हमसे क्या चाहता है ? क्या वो वैसी ही अवस्था में
पी लेना या उबालकर पी लेना हमसे पसंद करेगा? उत्तर: यदि हमारे भीतर में सही करुणा भाव है, तो हमारे विचार से वो पानी
हमसे हाथ जोड़कर विनती करेगा कि हम उसे वैसे ही छोड़ दें। किसी भी रूप में उसका उपभोग करके हिंसा न करें। क्योंकि दोनों ही विकल्पों में उसकी मृत्यु होने वाली है। आगम में कहा भी है कि कोई भी जीव मरना नहीं चाहता, सभी जीना चाहते हैं।
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