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ii) ये स्वास्थ्य के लिए नुक्सानदेह या अभक्ष्य नहीं होने चाहिए। iii) ये पानी में घुलनशील तथा कलिल बनाने में सक्षम होने
चाहिए। iv) धोवन बनाने का तरीका सुगम और संशय से परे होना चाहिए।
यदि ये दैनिक उपयोग में आने वाली क्रियाओं से उप-उत्पाद की तरह बन सके, तो धोवन बिल्कुल निरवद्य माना जायेगा।
इससे ममत्व या परिग्रह का पोषण नहीं होना चाहिए। प्रश्न 9: साधु और श्रावक (गृहस्थ) लोग कैसे उबले पानी या धोवन की
काल-मर्यादा से निपटते हैं, क्योंकि उनमें स्व निराकरण विपर्यय
का गुण पाया जाता है। उत्तर : श्वेताम्बर परम्परा में निम्नलिखित व्यवहार क्रियाएँ प्रचलित हैं:_.i) यदि कुछ काल-मर्यादा के बाद अचित्त पानी पर शस्त्र प्रक्रिया
को दोहराया नहीं जावे, तो पानी फिर से सचित्त बन सकता है। धोवन पानी के लिए यह काल-मर्यादा वर्षा ऋतु में 3 प्रहर की है। विभिन्न ऋतुओं के लिए भिन्न-भिन्न काल-मर्यादा बताई गई है। विलेय की मात्रा धोवन बनाने के लिए राख को अच्छी तरह से पानी में हिलाया जाता है। धोवन पूर्ण रूपेण बन जाए, इसके लिए एक नियम बताया गया है कि घुलने के बाद कुछ राख नीचे जम जानी चाहिए। इससे पता चल जाता है कि पानी अच्छी तरह से राख का कलिल (colloidal) बन गया है। ऐसे अच्छी तरह से बने धोवन को भी 5 प्रहर के बाद में साधक काम में नहीं लेते हैं। काल-मर्यादा साधक लोग इस प्रकार से बने धोवन को दूसरे प्रहर के बाद ग्रहस्थ के यहाँ से ले सकते हैं। लेकिन उसे अच्छी तरह से हिलाने के बाद ही स्वीकार करने का प्रावधान है। फिर भी ऐसे धोवन को भी 5 प्रहर के बाद काम में नहीं लेते हैं। धोवन को लेने के बाद, साधक लोग गरने से छानकर फिर काम में लेते हैं। इसको 9 घंटे के बाद पीने के काम में नहीं लेते हैं।
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