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उत्तर : पानी को उबालने से उसकी योनियाँ टूट जाती हैं। तापमान गिरने से
वे फिर से बनने लगती हैं। इस स्पर्श - परिणति (तापक्रम) के बदलाव में ज्यादा समय नहीं लगता है। लेकिन उबल जाने से पानी में घुली हुई हवा संपूर्ण रूप से निष्काषित हो जाती है। ठंडा होने के पश्चात् वो पानी फिर से धीरे-धीरे हवा सोखना शुरू करता है। संतृप्ति स्तर पर पहुंचने पर वह फिर सचित्त बन सकता है। हवा के सोखने की गति आदि वातावरण के तापक्रम व आर्द्रता पर निर्भर करती है। इस प्रकार सचित्त बनने का काल (समय) मौसम में तापक्रम, आर्द्रता पर निर्भर करता है। इसी से कहा गया है कि पुनः सचित्त बनने में भिन्न-भिन्न ऋतुओं में न्यूनाधिक समय लगता है। इसे अचित्त पानी
की कालमर्यादा कहते हैं। प्रश्न 3 धोवन पानी, जब शस्त्र परिणत होकर अचित्त हो जाता है, तो वैज्ञानिक
दृष्टि से हवा तो उसके भीतर घुली हुई अवस्था में रह ही जाती है। अतः इस हवा से उसमें श्वासोच्छवास तो चलता ही रहता है, फिर धोवन पानी का अचित्त होना तो इस दृष्टि से आभास मात्र रह
जाता है ? उत्तर: नहीं! पहले इसकी वैज्ञानिकता को समझ लेना होगा। उस धोवन
पानी में हवा जरूर घुली हुई रह जाती है, लेकिन धोवन बनाने की प्रक्रिया में, पानी की योनि, यानि पानी की सूक्ष्म संरचना बदल जाने से या नष्ट हो जाने से, वह पानी अचित्त बन जाता है। (देखिये : फोटो 1 और 2)। इस प्रकार योनिभूत पानी की संरचना, विजातीय/परकाय शस्त्र परिणति से टूटकर पानी को अचित्त बनाती है। चूंकि घुली हुई हवा के परिमाण में प्रायः कोई बदलाव नहीं होता है। अतः इसकी
कालमर्यादा ऋतुओं के साथ शीघ्र नहीं बदलती है। प्रश्न : 4 क्या उबालकर अचित्त बनाये गये जल को, उसकी कालमर्यादा के
उपरांत फिर से उबालकर अचित्त बनाकर पीने के काम में लाया जा
सकता है? उत्तर : सचित्त पानी को उबालकर जब अचित्त बनाया जाता है, तो उसमें
घुली हुई हवा तो बाहर निकल ही जाती है, लेकिन साथ ही में उसमें पनपते बैक्टेरिया और अन्य त्रसकाय के जीव भी जल कर मर जाते हैं, तथा उनका सूक्ष्म मृत शरीर उसी में रह जाता है। इन मृत शरीरों में
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