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iii)
धोवनः अन्य उपाय में परकाय – विजातीय पदार्थ जैसे राख, लौंग आदि के उपयोग से अचित्त 'धोवन' बनाया जाता है। आगम में कम से कम 21 प्रकार के धोवन बताये गये हैं। रसोई घर के बर्तनों को सुबह राख से मांजकर धोने से तथा आटे की कठोती धोने से, पानी में राख व आटे का मिश्रण अच्छी तरह से हो जाता है। इसलिये इसको अधिक प्रमुखता दी गई है। अच्छे मिश्रण का मतलब है, पानी का शत - प्रतिशत अचित्त हो जाना। वैज्ञानिक दृष्टि से, विजातीय तत्त्व पानी में मिश्रित होकर, सूक्ष्म स्तर पर उसकी योनियों के द्वारों को अवरुद्ध कर देते हैं, जिससे श्वासोच्छवास क्रिया बंद हो जाती है। हवा के मूलक खत्म होकर अणुरूप में आ जाते हैं। आपसी घर्षण से योनियाँ टूट भी जाती हैं। विजातीय तत्त्व की एक क्रांतिक मात्रा से बहुत अधिक मात्रा के उपयोग से ये योनियाँ आसानी से मरकर बिखर जाती हैं। यदि क्रांतिक मात्रा (क्रिटिकल मात्रा) से कम तत्त्व, उपयोग में लिया जाये तो पानी सचित्त ही रह जाता है। हालांकि यह मात्रा बहुत ही अल्प होती है (जैसे होम्योपैथी में)। कुछ तत्त्व तो पानी के रवों में स्थापित होकर, उसको लम्बे समय तक योनिभूत बनने से
वंचित रख सकने में सक्षम होते हैं। iv) त्रसकायः इन दोनों तरीकों में एक और व्यापार होता है। इन दोनों
क्रियाओं में पानी के भीतर उपस्थित त्रसकाय के सूक्ष्म जीव भी प्रायः प्राण रहित हो जाते हैं। पहले तरीके में वे उच्च तापक्रम के कारण जलकर मर जाते हैं, तो दूसरी प्रक्रिया में क्षारीय और घातक विजातीय तत्त्वों के प्रभाव से व उनके संसर्ग से वे अचित्त बन जाते हैं। इस प्रकार अचित्त बनाने की प्रक्रिया में हम देखते हैं कि पानी की योनि और / या हवा तो प्रभावित होती ही है, साथ ही उसके अंदर के सूक्ष्म त्रसकाय जीवाण बैक्टेरिया आदि भी नष्ट हो जाते हैं। आगम में प्रतिकूल स्पर्शना वाले पदार्थ जैसे त्रिफला, राख आदि से बने धोवन को ज्यादा अच्छा माना है, उसमें शायद आसक्ति नियंत्रण की भावना का उद्देश्य
रहा है। प्रश्न 2: 3 आगम में उबाले हुए अचित्त पानी की काल मर्यादा ऋतुओं के
अनुसार न्यूनाधिक बताई गई है। इसका वैज्ञानिक कारण क्या हो सकता है ? वह पानी फिर से क्यों सचित्त हो जाता है ?
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