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________________ दिया तो मेरा बंधन टूट गया। इसी प्रकार जब एक घड़ा भर कर कच्चा पानी मैंने अपने घर में रख लिया- अपने उपयोग के लिए-तो उस घड़े भर पानी से मेरा भाव-बंधन हो गया। यदि 1 किलो आलू खरीद कर मैं घर पर लेकर आया तो उन आलुओं से मेरा भाव-बंधन तो हो गया। अब प्रश्न उठता है कि उस घड़े भर पानी या आलू में जो जन्म-मरण हो रहा है, उसका निमित्त मुझे लगता है या नहीं ? यानि घर में लाकर रखने के समय से लेकर जब तक मैं उसे उपयोग में लेना शुरू करता हूँ, तब तक उसमें जो असंख्यात जीवों की उत्पत्ति व मरण होता है, क्या उसका मैं निमित्त बनता हूँ ? यदि हाँ तो क्या निमित्त का दोष लगता है ? उपरोक्त दोनों प्रश्नों के जवाब ढूंढ़ने हैं। "पण्णा सम्मिक्खए" यानि अपनी प्रज्ञा से समीक्षा करनी है। चूँकि अप्काय के जीवों की या वनस्पति के जन्म-मरण की क्रिया स्वाभाविक रूप से चल रही है, अतः मुझे उनकी हिंसा का निमित्त नहीं लगता है। केवल “परिग्रह" का दोष लगता है। यदि उस पर मेरा ममत्व जुड़ा हुआ है तो व्यवहार दृष्टि से निमित्त दोष भी लगता है। यदि हम घड़े के पानी या आलू जैसे पर-पदार्थ की हानि वृद्धि को निज की हानि-वृद्धि नहीं मानें तो हममें राग-द्वेष के भाव ही पैदा नहीं होंगे। ऐसी अवस्था में भाव-कर्म बंधन नहीं होगा। लेकिन हमारा यह भाव तो कच्चे पानी से भी होता है और घर में रखे अचित्त-पानी से भी होता है। d) अकर्मक अवस्था : पर-पदार्थ पर राग नहीं होगा, यदि मैं सोचूं कि मैं तो उपयोग स्वरूप, चेतन हूँ। ज्ञान और दर्शन मय हूँ। चेतन अरस, अरूपी, अगंध और अस्पर्शी है। अतः पानी या आलू के पुद्गल मेरी वस्तु नहीं है। इस तरह चिन्तन करके दृढ़ भावों से भाव-बंधन को रोक सकता हूँ। तथा बंधे हुए कर्म को अपने से पृथक कर सकता हूँ। (अज्ञान अवस्था में मनुष्य पर-पदार्थ की हानि-वृद्धि में निज की हानि-वृद्धि मानता है, और भाव-बंध करता है।) "अपने शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करने से कर्म स्वतः दूर हो जायेंगे।" (श्रीमद् राज चन्द्रजी)। 3) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006761
Book TitleScience of Dhovana Water
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJeoraj Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2012
Total Pages268
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size13 MB
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