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है, तब उस पानी में असंख्यात जीवों की उत्पत्ति और मृत्यु हर क्षण होती
रहती है। व्यवहार नय से उन सबका निमित्त लगता है। 2. वेदना:- उस पानी में से जब भी हम लोटा भर पानी निकालते हैं, तब लोटा
डालने व निकालने से अप्काय के जीवों को भयंकर वेदना होती है, उसका निमित्त मुझे लगता है। जितनी बार पानी निकालेंगे, उतनी बार वेदन होता है। यदि पानी को अचित्त बना कर (धोवन या गर्म करके), रखा जाये, तो
दिन भर में बार-बार हो रही इस वेदना की हिंसा से हम बच सकते हैं। 3. मात्रा की मर्यादा:- यदि अचित्त पानी का नियम ले रखा है तो आपने पानी
का सीमाकरण कर लिया। तब जितना अचित्त पानी आपने बनाया है, उतना ही आपके उपयोग में आयेगा। i) यहाँ तक कि यदि आप बाहर गये हैं, वहाँ का पानी, हो सकता है,
कच्चा होने से आप नहीं पीयेंगे । इस तरह दिन में हो रही आवागमन में, हर जगह थोड़ा-थोड़ा कच्चा पानी पी लेने की मजबूरी बच जायेगी। आपकी मर्यादानुसार, आप घर आकर अपना पानी पीयेंगे। इसमें परीषह तप का लाभ मिलेगा। यानि अचित्त पानी के प्रत्याख्यान का
इतना लाभ और मिल जायेगा। ii) इसमें दिन भर के लिए एक निश्चित मात्रा भी तय हो जाती है। मात्रा
का लाभ)। iii) गरने से छान कर, जिस पानी से रसोई में बर्तन व अनाज आदि धोकर
जो धोवन बनता है, वह सहज और निरापद धोवन कहलाता है। उसको सहेज कर रखने व उपयोग में लेने से न केवल असंख्य जीवों
की रक्षा करते हैं, बल्कि कर्म निर्जरा भी होती है। c) बंध का निमित्तःउपरोक्त b1. बिन्दु पर आगे गौर करते हैं। 1) विचार करिये कि मैं एक मकान में रह रहा हूँ। उसके बाहर एक पत्थर पड़ा
है। उस पत्थर पर मेरी दृष्टि नहीं पड़ती। तब पत्थर से मेरा किसी तरह का बंधन नहीं है। यदि कभी मैंने उस पत्थर पर गौर करके, किसी कार्य के लिए उपयोगी मान कर अपने मकान में रख लिया, तब उस पत्थर से मेरा भाव – बंधन हो गया । यदि फिर कभी उस पत्थर को अनुपयोगी जानकर वापिस बाहर फेंक
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