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होना मुमकिन हो सकता है। इसके द्वारा (1) या तो उसी प्रकार के नये कोषाणुओं के निर्माण के लिए उत्तेजित किया
जाता है। (2) या रोग-प्रतिकारक (Antibody) कोषाणु के संश्लेषण के लिए
निर्माण की गति तीव्र की जाती है।
ये दोनों प्रकार के निर्देश उस संस्कारित कोषाणु के गुण-क्षेत्र यानि विभिन्न 'प्रकम्पन व उसकी आकृति और ऊर्जा' पर निर्भर करते हैं तथा जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, यह संस्कार उस दवा में डाले गये सूक्ष्म-मात्रिक तत्त्व द्वारा उस कोषाणु पर किये गये लेप व अंकन की गहराई पर भी निर्भर करता है। इस प्रकार पानी के इस भौतिक कोषाणु में "स्मृति' और 'सूचना-प्रसारण' जैसी क्रिया होती नजर आती है, जो किसी संरचना के 'जीवित’ होने का प्रमुख लक्षण है। संक्षिप्तः
होम्योपैथी पद्धति में 'स्मृति' व 'सूचना प्रसारण' के लिए जलकाय की ‘सजीवता (सचित्तता) और उसकी भूमिका को संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है1. होम्योपैथी में पोटेन्सी या पतलापन बढ़ाने से जीवित जलकाय के कोषाणु
की उत्प्रेरण या कार्यक्षमता बढ़ जाती है जो जीन की स्मृति और नियमावली को सक्रिय करती है। इससे मूल जीवन में (अ) रोग-प्रतिकारक कोषाण पैदा करने की तथा (ब) सजातीय जैविक उत्पाद को संश्लेषित करने की क्षमता बढ़ जाती है। मुक्त रूप से घूमते मूलक या निऑक्सीकारक (deoxidants) या विशिष्ट कोषाणु (characterised cells) की तरह ही 'जीवित-पानी' के कोषाणु भी एक विशिष्ट प्रकार के पद-अंकन धारण कर, उस कोषाणु में उत्प्रेरण का काम करते हैं, जिसकी नाभि में जाकर वे वहाँ के 'जीन्स' से संबंध स्थापित करते हैं। इस प्रकार 'जीवन' की दोनों शर्तों को पूरी करता हुआ पानी भी वैज्ञानिक दृष्टि से 'अपकाय' का सचित्त पदार्थ हो सकता है, जैसा कि हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों, आचार्यों ने बताया था।
यह होम्योपैथी की तरह एक प्रभाव-आधारित परिकल्पना है। इससे पाठकों व श्रोताओं की कल्पनाशक्ति और उद्वेलित होगी तथा इसको प्रयोगों द्वारा जीवित
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