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________________ 29. भट्टारकों का प्राकृत साहित्य को अवदान - डॉ. कल्पना जैन, नईदिल्ली प्राचीन समय के दिग. जैन भट्टारकों की देश के साहित्य, कला, समाज के उन्नयन में जो महत्वपर्ण योगदान रहा है, उसका मूल्यांकन अवश्य किया जाना चाहिए। ये भट्टारक शिक्षाशास्त्री , साहित्यकार और विद्वान् ही नहीं थे, अपितु उन्होंने अपनी साधना और संयम द्वारा भी भारतीय धर्म और नैतिक आचरण को संरक्षित किया है। यह परम्परा वर्तमान युग में दक्षिण भारत में अभी जीवित है । वहाँ की संस्कृति और समाज के विकास में आज भी विद्वान् और कर्मयोगी भट्टारक सक्रिय हैं । प्राकृत साहित्य के उन्नयन में भी श्री दिग . जैनमठ श्रवणबेलगोला के भट्टारक पूज्य स्वामी कर्मयोगी चारूकीर्ति जी स्वयं भी जैनदर्शन और प्राकृत के निष्णात मनीषी हैं तथा उन्होंने प्राकृत भाषा और साहित्य के विकास के लिए भी अपूर्व सेवा की है। भट्टारक पद्मनन्दि : जम्बूदीवपण्णत्ती, धम्मरसायण पद्मनन्दि नाम के ९ से भी अधिक आचार्य एवं भट्टारक हो गये हैं जिनका उल्लेख विभिन्न ग्रन्थों, शिलालेखों एवं मूर्तिलेखों में मिलता है। लेकिन वीरनन्दि के प्रशिष्य एवं बालनन्दि के शिष्य आचार्य पद्मनन्दि उन सबसे भिन्न हैं । ये राजस्थानी विद्वान थे और बांरा नगर इनका प्रमुख साहित्यिक केन्द्र था। पं नाथूराम प्रेमी ने बारा की भट्टारक गादी के आधार पर पद्मनन्दि का समय विक्रम संवत ११०० के लगभग माना है। पद्मनन्दि प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान थे। जैन-दर्शन तथा तीनों लोकों की स्थिति का उन्हें अच्छा ज्ञान प्राप्त था। अपने समय के वे प्रभावशाली आचार्य एवं भट्टारक थे तथा अनेक शिष्य-प्रशिष्यों के स्वामी थे। उस समय प्राकृत के पठन-पाठन का अच्छा प्रचार था। राजस्थान एवं मालवा उनकी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था | पद्मनन्दि की प्राकृत भाषा की दो कृतियां उपलब्ध होती है जिनमें एक , जम्बूदीवपण्णत्ती तथा दूसरी धम्मरसायण है। जम्बूदीवपण्णत्ती, एक विशालकाय कृति है जिसमें २४२७ गाथाएं हैं जो ९३ अधिकारों में विभक्त है। वास्तव में यह ग्रंथ प्राचीन भूगोल खगोल का अच्छा वर्णन प्रस्तुत करता है। आचार्य पद्मनन्दि की दूसरी रचना धम्मरसायण है जिसमें १९३ गाथायें है। भाषा एवं शैली की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यधिक सरल एवं सरस है । इसमें धर्म को ही परम रसायण माना गया है। यही वह औषधि है जिसके सेवन से जन्म-मरण एवं दुःख का नाश होता है। धर्म की महिमा बतलाते हुए ग्रंथ में कहा है कि धर्म ही त्रिलोकबन्धु है तथा तीन लोकों में धर्म ही एक मात्र शरण है। धर्म के पान से यह मनुष्य तीनों लोगों का पार कर सकता है। धम्मो तिलोयबन्धू धम्मो सरणं हवे तिहुयणस्स। धम्मेण पूयणीओ , होइ णरो सव्वलोयस्स ।। 1- 240 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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