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भोजन को रोग का कारण माना है । प्रवचनसार में टीकाकार (पु. २८४) ने अधिक भोजन को उन्माद का सूचक घोषित किया है । एकवार, अल्प भोजन, रस सहित एवं मधु-मांस आदि से रहित भोजन शरीर को स्वस्थ बनाता है। ( प्रवचनसार २६,३०) जौ नामक अन्न पेट में वायु बढ़ाता है . (प्रवसा. २/४०) समयसार (गाथा नं ३४१) में भी पथ्यापथ्य भोजन का उल्लेख है । मधुर है और कौनसा भोजन कटुक है इसकी जानकारी दी है । (पृ. ३००) समयसार में मद्य को शरीर के लिए हानिकारक कहा है ।(सम.२०५) प्राण तत्व - जीव हैं इसलिए वे सभी प्राणवान हैं । उनकी इन्द्रियाँ, आकार-प्रकार शक्ति, आयु भी होगी । वे श्वांस लेते हैं ; श्वांस छोड़ते हैं । पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं । ( प्रवचनसार २/५५) प्राणों से जीव जीवित हैं, जीता है और आगे भी जीवन को धारण करता रहेगा । शरीर संरचना - आगमवेत्ता, सिद्धान्तज्ञाता जीवन की समग्रता जानते थे, उनके ज्ञान में सिद्धान्त था और विज्ञान भी । शरीर सम्बन्धी विज्ञान का प्ररूपण आगम सिद्धान्त ग्रन्थों में सर्वत्र दिखाई पड़ता है । तिलोयपण्णत्ति का एक उदारण दृष्टव्य है - १. माता का रक्त, पिता का शुक्र से उत्पन्न होकर दश रात्रि पर्यंत कलक रूप में । (कीचड़ रूप में) २. इसके बाद की दश रात्रि पर्यन्त कलुषीकृत ।(२०दिन) ३. कलुषीकृत के दश रात्रि पर्यन्त स्थिरीभूत/निष्काप्य( ३०) ४. कलुषीकृत के पश्चात प्रत्येक मास में बुदबुद । ५. घनभूत ६. फिर मांस पेशियों का निर्माण होता है .(पांच पुलक, दो हाथ, दो पैर, एक शिर, अंगोपांग, चर्म, रोम, नख आदि) ७. आठवें मांस में स्पंदन की क्रिया होती है । ८. नवें/दसमें में जन्म । -(तिलोय ४/६२७-६२९)
गर्भ समय में बालक अमाशय के नीचे, पकबाशय के ऊपर मल के बीचों बीच वस्तिपटल (जरायु-पटल) से आच्छादित, वान्ति आहार से युक्त नौ-दसमाह तक - शोणित- शुक्र में युक शरीर रहता है । (ति प. ४/ ६३०.३३२)
यह सरीर सप्तधातुओं से युक्त होता है । श्वांस रुक जाने, आहार न मिलने, गर्मी, शर्दी की गुरुता आदि से वात, पित्त एवं कफ आदि की विषमता से रुग्ण होता है । ( भावपाहुड २५,२६, धवलापुस्तक १/२३, गोम्मटसार कर्म ५७)
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