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________________ महाकवि पुष्पदन्त ने अपने उक्त तिसट्ठिमहा. की सन्धियों के अन्त में उसे महाकाव्य की संज्ञा भी प्रदान की है। यद्यपि अध्ययन करने से इस विशाल-ग्रन्थ में महाकाव्य अथवा प्रबन्ध-काव्य की श्रृंखला-बद्धता तो नहीं मिलती और वह निश्चय ही पौराणिकता-प्रधान कृति है। फिर भी, उसमें मानव-जीवन का शायद ही ऐसा कोई पक्ष हो, जिस पर पुष्पदन्त ने प्रकाश न डाला हो। परम्परागत कथानक में जहाँ कहीं भी कोई रससिक्त प्रसंग आया है, महाकवि ने उसे अपनी कवित्व-शक्ति से हृदयहारी बनाकर प्रस्तुत किया है। इस प्रकार के उदाहरण उसके तिसट्टि.महा. में वर्णित प्रधान-नगरों, प्रदेशों, वहाँ के नागरिकों एवं वन्य-प्रान्तों के प्राकृतिक-सौन्दर्य-वर्णनों में प्रचुर मात्रा में देखे जा सकते हैं। तिसट्ठि-महापुराण के प्रणेता : प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रणेता महाकवि पुष्पदन्त हैं । किन्तु भारतीय साहित्य के इतिहास में पुष्पदन्त नामके अन्य तीन लेखकाचार्यों के नाम और भी मिलते हैं। तिसट्टि. महापुराण के प्रणेता महाकवि पुष्पदन्त का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ही ऐसा चमत्कारी था कि परवर्ती ५-६ सदियों के अनेक महाकवियों-हरिषेण (९८७ ई.) वीर (१०१९ ई.), नयनन्दी (१०५० ई.), कनकामर (१०६० ई.), श्रीचन्द्र (१०६६ ई.), देवसेन-गणि (१०७५ ई. के आसपास), पं.लाखू (१२१८ ई.), धनपाल, वाग्भट एवं रइधू (१६ वीं सदी) द्वारा उनका सादर स्मरण किया जाता रहा। इनके अतिरिक्त भी आचार्य हेमचन्द्र (१२वीं सदी) ने अपनी रयणावली (देशीनाममाला) में अभिमानचिह्न नामके एक देशी-कोशकार का उल्लेख किया है। बहुत सम्भव है कि अभिमान-चिह्न-उपाधिधारी इन्हीं पुष्पदन्त ने उस देशी-शब्दकोश-ग्रन्थ का प्रणयन किया हो? वर्तमान में यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है। जीवन-वृत्त, रचना-काल एवं रचना-स्थल __ तिषट्ठि महापुराण की आद्य-प्रशस्ति के अनुसार पुष्पदन्त के पिता का नाम केशव भट्ट तथा माता का नाम मुग्धादेवी था (१/३)। अपने जन्मकाल से वे शैवधर्मी थे किन्तु बाद में जैनधर्म से प्रभावित होकर वे जैनधर्मानुयायी बन गये। वे काश्यप-गोत्रीय-ब्राह्मण थे। उन्होंने क्रोधन-संवत्सर अर्थात् शक-संवत् ८८७ (९६५ ई.) में तिसट्टिमहा. के लेखन-कार्य की समाप्ति (१०२/१४) तथा अपने जसहरचरिउ-काव्य की रचना मान्यखेट-नगर में उस समय की थी, जब वहाँ भयंकर लू अर्थात उच्चतम तापमान नगर को झुलसा रहा था। वह शक्-संवत् ८९४ (८७२ ई.) का वर्ष था। पुष्पदन्त शक-संवत् ९९७-८९४ (९६५-९७२ ई.) तक मान्यखेट-नगर में रहे थे। महाकवि की शारीरिक संरचना। काव्य-प्रतिभा की दृष्टि से पुष्पदन्त जितने आकर्षक, सुन्दर एवं सरस थे, शारीरिक दृष्टि वे उतने ही कुरूप, काले, धूलि-धूसरित, नरवेश में चर्माच्छादित ढूँठ के समान, बालचन्द्र के समान क्षीणकाय तथा बल्कल-चीरवस्त्रधारी थे। यह सब होते हुए भी उनकी सुन्दर एवं धवल दंत-पंक्ति उनके नाम को सार्थक करने वाली थी। पुष्पदन्त - 188 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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