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________________ ने तुडिग-नरेश के गृहमन्त्री नन्न की प्रेरणा से उन्ही के आश्रय में मान्यखेट में रहकर ही णायकुमार=चरिउ (नागकुमार-चरित) की भी रचना की भी। मान्यखेट में आने के पूर्व पुष्पदन्त ने किसी भैरवराज नामके राजा के आश्रय में रहते हुए उसकी प्रशस्ति में किसी एक प्रशस्ति-ग्रन्थ की भी रचना की थी (तिसट्टिमहा. १/३/ १०-११) किन्तु यह रचना अनुपलब्ध है। शिवसिंह ने कवि-पुष्पकृत जिस दोहा-शैली में लिखित अलंकारग्रन्थ की रचना की चर्चा की है, वह भी अद्यावधि अनुपलब्ध है। पुष्पदन्त के तीन अपरनाम भी मिलते है - गन्धर्व-कवि एवं कुसुमदशन, जबकि तिसट्टिमहापुराण में पुष्पदन्त ने स्वयं अपने को खण्डकवि पुष्पदन्त भी कहा १/६/१) र की TD पथ्य पर विचार किया ड-काव विशषण का सायकता क्या रहा हागा इस तथ्य पर विचार किया जाना आवश्यक है। महाकवि पुष्पदन्त की संघर्ष-कथा तिसट्ठिमहापुसिगुणालंकारु-ग्रन्थ का प्रारंभ महाकवि ने बड़ी ही रोचक, मार्मिक एवं औपन्यासिक-शैली में किया है। उन्होंने एक शैवधर्मी राजा-भैरवराज (१/३/१०-११) की राज्य-सभा में अपमानित होकर देखते ही देखते कुछेक क्षणों मे राज्य-सीमा के बाहर निकल जाने का संकल्प किया । वे चलते -चलते मान्यखेट-नगर के बाहिरी जंगल मे आकर एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। अपने स्वाभिमान की सुरक्षा के लिये उन्होंने कितने कष्ट सहे, भूखे-प्यासे रहे, वल्कल-चीरी रहे और धरती पर सोते रहे। आदि-आदि। भ. सन्मतिनाथ को नमस्कार कर तथा सरस्वती -देवी का स्मरण करते हुए वे राजाधिराज तुडिग (महा.१/ ३) द्वारा शासित मेलपाटि (मान्यखेट) नगर के बाहिरी उपवन में एक वृक्ष के नीचे जब हाथ का ताकिया लगाये चिन्तित-मुद्रा में लेटे हुए थे, उसी समय अम्मइय्या एवं इन्द्रराज नामके दो संवेदनशील पाथिकों ने उन्हें (पुष्पदन्त को) शिथिल एवं चिन्तित मुद्रा में देखा, तो विनम्रता-पूर्वक उनसे निवेदन किया कि आप इस मेलपाटि(मान्यखेट) नगर में चलकर विनम्र एवं उदार तथा शुभतुंग-देव के महामात्य-भरत के शुभतुंग-भवन (नामके राजा-निवास) में निवास क्यों नहीं करते ? (दे. १/२-३) यह सुनकर पुष्पदन्त ने उन दोनों पथिकों को कोधावेश में भरकर जो प्रत्युत्तर दिया, वैसा उत्तर विश्वसाहित्य के इतिहास में दूरबीन से खोजने पर भी शायद ही कहीं मिल सके। उन पथिकों ने महाकवि के वचनों को शान्तिपूर्वक सुना, उसके स्वाभिमान तथा क्रोधाकुल-भावना में अन्तगर्भित किसी स्वर्णिम भविष्य की कल्पना की और शासक-शुभतुंग तथा उसके महामात्य भरत का गुणगान कर उन्होंने उसे प्रभावित कर लिया और उस अभिमानमेरु महाकवि (पुष्पदन्त) को वे दोनों पथिक महामात्य भरत के राज-निवास- 'शुभतुंग-भवन' में ले आये। भरत ने भी अत्यन्त प्रमुदित होकर कवि को अपरिमित स्नेहादर देकर सदा-सदा के लिए उसे अपना बना लिया। -- 189 - = Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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